पता लगा कि एक सरकार के चार साल पूरे हो गए। सरकार के प्रमुख ने हार पहने और अपने भक्तों की एक दूरदर्शनी सभा में कहा कि हमें आत्मावलोकन कार्यक्रम भी साथ-साथ जारी रखना चाहिए।
ऐसा लगा कि वे चार साल के किए कराए की गिनती लगाने में जितने परेशान नहीं हुए, उससे ज्यादा बचे एक साल की शेष योजनाओं को लेकर उद्वेलित थे। उन्होंने गरीबों की गिनती की और उनकी हालत पर अनगिनत कोणों से जोर देकर कहा कि अब इस सरकार का जो शेष कार्यकाल है, उसमें गरीबों को ‘नई दृष्टि, बढ़ते दायरे’ के नारे के तहत उठा देना है।
गिनती के दिन, अनगिनत सपने। जब गिनती के दिन रह गए, तो गरीबों की गिनती याद आई। दूरदर्शन पर ये गिनती तबियत से झेलनी पड़ी। जाहिर है, असंतुष्टों के सवालों की गिनती की पिटाई के लिए इनकी गिनती का शोर सरकारी बिल पर देश को झेलना ही था।
आजकल ऐसा होता है कि सरकारें पहला महीना पूरा करती हैं और खुशी से चीखती, एक रैली में जा खड़ी होती हैं। एक साल पूरा करती हैं और ‘बच गए’ शैली में उत्सवमूर्ति होने को बेताब हो जाती हैं। इन रैलियों-जलसों में यह गिनाया जाता है कि सरकार ने अनगिनत बाधाओं के बावजूद देखो- ‘हाय, ये क्या कर दिया!’ जनता गणित में कमजोर है, इसलिए वह अपने ध्यान में यह नहीं रखती कि सरकार ने कितने महान काम कर लिए हैं, वह सिर्फ रैली या उत्सव की बाट जोहती है।
हर ऐसा जलसा, उसके गणित ज्ञान पर हंसता-नाचता-गिनता-गिनाता बताता चला जाता है कि उस पर किए गए अहसानों की संख्या यह है। हमारा सूचना-प्रचार विभाग आजकल गिनने-गिनाने में काफी मसरूफ रहता है। क्या मुख्यमंत्री और क्या प्रधानमंत्री, सबको अपने समर्थकों की गिनती के साथ बेहद जोर-जोर से यह गिनाना पड़ता है कि नलकूप, नौकरियां, बिजली के खंभे या अनाज का भाव ही जिंदगी में सब कुछ नहीं होता। लगभग हर शासकीय राजनीतिक विज्ञापन एक चमत्कार का संख्यात्मक दावा करता है और बीसियों ऐसी चीजें गिनी जा सकती हैं, जिन्हें चमत्कार के बिना शायद ही ‘हुआ’ माना जा सके।
पहले ऐसी अफवाह थी कि बड़े लोग काम करके नहीं गिनाते, किए काम गिनाने का धंधा टुच्चों का है। इस अफवाह के झांसे में कई लोग बर्बाद हो गए। इस डर से कि वे कहीं टुच्चे न समझ लिए जाएं, सचमुच टुच्चे रह गए। चूंकि अब फलसफा बदल गया है, वे पुरानी कसर निकाल रहे हैं, वे टुच्ची से टुच्ची चीज को भी गौरव के साथ प्रस्तुत करते हैं। हत्यारे, डकैत या जालसाज की अपने उद्योग में प्रतिष्ठा इस बात से बनती है कि उसके खाते में हत्या, डाके या जाली कलाशिल्प की क्या गिनती है।
बावजूद इसके ऐसी कोई ऐतिहासिक परंपरा देखने में नहीं आती कि इस उद्योग के चमकते सितारे अपनी बैलेंसशीट, दावे या उपलब्धियां गिनवाने के लिए कोई रैली करते हों या प्रेस विज्ञप्ति भेजते हों, इस पुरानी खामी को नई व्यवस्था में दूर कर लिया गया है। एक सेठजी ने गुस्से में दो साल तक कोई दान नहीं किया, क्योंकि उनसे कम रुपए दान करने वाले की खबर उनसे बड़ी छप गई थी। गिनती की लड़ाई में गरीब मारे गए। सेठजी पुण्य की लूट कर जाते, इनका भी तो कुछ भला होता।
पहले चीजें काफी खिंचती थीं। एक सौ पच्चीस दिन या पच्चीस हफ्ते चले बिना फिल्मों को रजत जंयती मनाने में शर्म आती थी। अब सवा हफ्ते भी खिंच जाएं तो पोस्टर छप जाते हैं। सरकारें लंबी चलतीं नहीं, फास्टफूड की तरह सत्ता में लंबी तृप्ति की पारी की बजाय लगभग प्रतिदिन सरकार के बचे रहने का उत्सव चलता है।
समर्थकों की संख्या का भरोसा नहीं, इसलिए हर चौथे दिन ‘रेबड़ में भेड़ों’ की गिनती घोषित की जाती है। पहले राज्यपाल गिनती में आते ही नहीं थे, अब उन्हें रोजाना विधायकों की गिनती, सूची और परेड का आनंद मिल जाता है। यों भी गणित राजनीति के स्कूल का अनिवार्य विषय है और इस विषय की ट्यूशन भी नहीं चलती, इसलिए चेले खुद ही नए-नए तौर-तरीके ईजाद करते रहते हैं।
उद्योग अपना-अपना टर्नओवर दिखाते हैं। अखबार अपनी प्रसार संख्या को लेकर तलवारबाजी करते हैं। प्रेम के अक्षरों की गिनती जब कबीर ने की थी तो ढाई बताए थे। अब इससे प्रेरणा लेकर ढाई दिन का प्रेम किया जाता है।
कबीर द्वारा पंरपरा में गिनती का मूल्य बदल दिया गया था या यों कहें कि उनकी परंपरा कई चीजों की गिनती में ही नहीं जाती थी। इसे साबुन, टूथपेस्ट आदि की नई संस्कृति ने परिष्कृत किया। इसमें वो है, जो औरों में नहीं का अहसास जगा। अब हम सिर उठाकर कह सकते हैं गुणों की गिनती कराने में हम भी कम नहीं। हमारा नाप भी अंतरराष्ट्रीय सौंदर्य विशेषज्ञों के हिसाब का है। हम भी पचास पैसे कम में अधिक सफेदी की तरह बिक सकते हैं।
एक जमाने में जब देवीलाल पूरे फॉर्म में थे, तब उन्होंने गिनती के क्षेत्र में एक महान परंपरा की नींव डाली थी। वे महारैली करते थे, ताकि सिर गिनाकर अपनी चौधराहट का शंख फूंक सकें। जब कभी जनतादल के पेट में कुछ होता, वे बेचैन होकर एक रैली का हांका मार देते। अभी भी जनता दल या उसके सगे-सौतेले भाइयों में गिनती कराने की यह परंपरा लोकप्रिय है। दिल के दर्द को भाड़े की भीड़ की गिनती राहत पहुंचाती है- यह वहां का कुल-मंत्र है। शंख फूट गया है, पर फूंकने का काम बदस्तूर चालू है।
एक बार रात को तारे गिनते हुए एक महान व्यक्ति इस बात पर दुखी थे कि उनकी षष्टी पूर्ति मनाने वाले नहीं मिल रहे। वे काफी हिसाबी और सलीके के आदमी थे। अपने गुणों की लंबी सूची उन्होंने तैयार कर रखी थी। मृत्यु पश्चात छपने योग्य एक आलेख भी तैयार कर रखा था।
आलेख और सुंदर तस्वीर की कई प्रतियां, संबंधितों के नाम लिफाफों पर पते लिखकर भी रख छोड़े थे पर फिर भी वे उद्विग्न थे कि आज जब साठ की गिनती ठीक से करने वाला नहीं मिल रहा है, तो बाद की गिनती का कार्यक्रम किसके भरोसे छोड़ें? गुणों की गिनती कोई चलताऊ मामला तो है नहीं, लिहाजा जब तक कोई सुपात्र नहीं मिल जाता, उन्होंने मरना स्थगित कर रखा है।
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