देश ‘नॉनसेंस क्रांति’ का आनंद ले रहा है। गुड़गांव की जमीनों से लेकर तिहाड़ की दीवारों तक फिक्स मैच की तालियां गूंज रही हैं। ऐसे में यदि राष्ट्र सरकार और असली सरकार के लतीफे पर बार-बार बहस करें तो भी वह राहुल जी से ऊपर नहीं जा सकेगा। मैंने सोचा कि उनकी क्रांति की बजाय एक पुरानी मामूली क्रांति को डायरी से निकाला जाए।
अब मायके जाने की धमकी पर नायक की मनुहार की बजाय एक मीठी प्रसन्नता का प्रचार किया जाता है। नायिका अगर कहे कि ‘मैं मायके चली जाऊंगी’ तो नायक कहेगा-‘कब जा रही हो, अभी रिजर्वेशन करा आऊं?’ काले कौए मायके संबंधी झूठ बोलने पर यदि सचमुच अभी भी काटने के पेशे में लगे हों, तो उनके लिए पुराने पन्नों पर एक खबर है।
रायसेन जिले के किनगी गांव की गायत्री इसलिए मायके चली गई कि उसका पति तुलसीराम, साक्षरता की कक्षा में पढ़ने नहीं आता था। गायत्री को मायके जाने के लिए तुलसी से तकरार इस बात पर नहीं करनी पड़ी कि वह वक्त पर राशन नहीं लाता था। उसने दहेज के लिए तंग किया हो, ऐसा भी नहीं था। न तुलसी ने उसे ऐसी कोई धमकी दी थी, जिसमें सौत आ जाने का अंदेशा हो।
बस, गायत्री लिखना-पढ़ना जानती थी। उसने सोचा गांव में और भी पढ़ने लिखने वाले हो जाएं। उसने साक्षरता की कक्षाएं शुरू कीं। गांव-गोठनें उनमें आने लगीं- ‘अ’ अनार का सीखने लगीं। गायत्री की सास और देवर को भी कुछ जंचा कि ‘उठ खड़े होने का वक्त आ गया है।’ गायत्री ने दहेज-सेवा की बजाय अक्षर दिए।
शायद सास को केरोसीन और देवर को दियासलाई से सम्बद्ध करके रखने वाले यह भी जानते होंगे कि गांवों में यह आग उस तरह नहीं लगती, जिस तरह शहरों में लगती है। यह अलग प्रश्न है कि शहरों में गैस है फिर भी घासलेट का सासोपयोगी स्वरूप क्यों उभर कर आता है। गांवों में सास-बहू-देवर के बीच सौहार्द ज्यादा रहता हो, ऐसा कोई अधिकृत प्रमाण भी नहीं है।
लेकिन, अमूमन हर चीज की किल्लत से लड़ते हुए गांव में घासलेट आदि से बेहतर दरांती या लाठी मानी जा सकती है। गायत्री को न इन विशिष्ट हथियारों से लड़ने की जरूरत पड़ी, न वह ऐसी कोई खबर शहरी लिपस्टिकवादी नारीमुक्ति आंदोलनकारियों को उपलब्ध करा पाई कि वे एक बढ़िया ज्ञापनमुक्त तस्वीर खिंचवा सकतीं। सास और देवर, दोनों ने गायत्री से खुशी-खुशी पढ़ना सीख लिया। कुनबा पढ़ने-लिखने वालों की फेहरिस्त में आ रहा था कि गायत्री के पति तुलसीराम ने गच्चा दे दिया। उसने साक्षरता कक्षा से गायब रहने में ज्यादा सुख महसूस किया।
क्षमा करें, यहां फिर नारी-मुक्ति के लिपस्टिकवाद का उल्लेख आएगा। क्योंकि, पति तुलसी के न पढ़ने आने में यह सूत्र कहीं से नहीं मिला कि पत्नी यानी स्त्री को कमतर मानकर उससे अक्षर ज्ञान लेने में उसने अपना कोई अपमान महसूस किया था। यदि यही सुराग कहीं से मिल जाता तो भी ‘पुरुष का सामंतवादी चेहरा’ विषय पर साक्षरता के बहाने ही सही एक ‘दिन-धुलाई’ का मामला बनता। न तुलसी आंदोलन के काम आया, न गायत्री!
गायत्री ने पाजेब, नौलखा हार, जरी की साड़ी या कान के झुमके भी नहीं मांगे। उसने सिर्फ यह कहा कि जब तक तुलसी साक्षर होने को उठ खड़ा नहीं होता है, तब तक के लिए वह मायके जा रही है। मैंने तो कभी यह नहीं सुना कि किसी धनपति की बीवी ने यह कहकर मायके जाने की धौंस दी हो कि पति जब तक दो नंबर का काम नहीं छोड़ देंगे, वह नहीं लौटेगी। पर गायत्री ने निरक्षरता के काम को ‘दो नंबर’ वाला मुद्दा बनाने का प्रेमिल साहस प्रदर्शित किया। वह मायके चली ही गई। खबर का अंतिम हिस्सा यह है कि तुलसीराम ने पत्नी को मायके से वापस बुलाने का निर्णय यह प्रण लेकर किया कि वह अपनी पत्नी से ही पढ़-लिखकर साक्षर बनेगा।
इस तरह मायके और सौतन की धमकी के मुहावरे पिट गए। यह कितनी खुशी की बात है कि मायके और काले कौए के लोकगीत के अंदर सौतन की जगह निरक्षरता ने ले ली। करोड़ों के, दस्तखत सिखाऊ साक्षरता नाटकों के बीच काले कौओं के लिए एक तो खबर बनी, जहां वे न काटने की खुशी मना सकते हैं।
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