कोई भी चीज गिरे, जैसे नैतिक मूल्य या हाथ का कप, आवाज तो होती ही है। कुछ लोगों की नैतिकता कप की शक्ल में होती है, कुछ का मूल्य ही कप होता है। जो लोग जीवन भर कप के गिरने-टूटने की समस्या से आतंकित रहते हैं, वे नैतिक रूप से गिरने के प्रति उतने ही डरे हुए हों, यह जरूरी नहीं है। बस इतना जरूरी है कि वे क्रॉकरी का जबर्दस्त स्टॉक रखें। इधर एक गिरा कि उधर दूसरा हाथ में। नीचे सफाई चलती रहे, ऊपर हर बार कप चमकता रहे। ऐसे चमकदार कप वालों को पतन की समस्या कभी नहीं सताती। पर यदि फैक्टरी ही क्रॉकरी की हो, तो दिशा बदल जाती है।
इसीलिए अभी कल जब वे मिले, तो बहुत विचलित थे। उनके पास विचलन की लंबी परंपरा है। घर से लेकर बाहर तक उनके विचलन की कहानियां कही जाती हैं और गीत गाए जाते हैं। पर चूंकि वे सामान्य चरित्रगत विषयों पर आधारित होती हैं, इसलिए वे इनके प्रसार पर मुदित होते हैं। जिससे वे कभी आंख न मिला सके, उससे प्रेम प्रसंग की कथा चले, तो उन्हें भला हर्ष क्यों न होगा? पर दावा है कि वे पतन और चरित्र के बीच काफी संतुलित रवैया रखते आए हैं। आज जो विचलन था, वह दूसरे पतन पर था। उनका सोचना था कि आसमान गिरने वाला है। इसे थामने के लिए बयान जारी होना चहिए।
‘आकाश का पतन आपको कहां से होता दिख रहा है?’ मैंने पूछा।
‘वहीं बनारस से।’
‘मेरे ख्याल से यदि यह आसमानी पतन समस्या है, तो इसे वैश्विक होना चाहिए। सिर्फ बनारस में आसमान गिर पड़ेगा, तो आसमान नहीं कोई तंबू ही होगा। तंबू का पतन भी क्या पतन? छोड़िए…..।’
वे हर्षवर्धन, कपिल सिब्बल और अरविंद केजरीवाल के यहां समान क्षमता से विमर्श का प्रात:कालीन नाश्ता करके समाजवादी गुमटी का पान खाते-खाते वजनदार हुए थे। वे बुनकरों के आंकड़े तथा अपना बौद्धिक टेंट हाउस, दोनों साधे हुए थे।
‘आपको पता नहीं है। जो बनारस में आसमान गिर गया, तो डेमोक्रेसी के लिए धरती पर जगह कहां बचेगी?’ ‘अव्वल तो डेमोक्रेसी धरती की चीज है। कहीं चल रही है, कहीं नहीं चल रही है, कहीं बुरी तरह चल रही है, कहीं उसके बारे में सोचना भी पाप है। फिर भी आसमान ऊपर टंगा है। धरती पर सब चल रहा है। पब्लिक को कोई डर नहीं है।’ ‘आप समझ नहीं पा रहे हैं। हम लोग बरसों से अपने बनाए अदृश्य खंबों पर आसमान टिकाए रखे हुए थे। अब साजिशें बड़ी हो गई हैं। खंबों को हिलाने पर तुली हैं। पब्लिक को तबाही से बचाने के लिए बयान जरूरी हो गया है।’
‘खंबे जब अदृश्य थे, तो उन्हें साजिश करने वालों ने कैसे देख लिया?’
‘आम जनता भोली होती है। वह तुम्हारे जैसे सवाल उठाने वालों से नहीं, हमारे जैसे भविष्य दृष्टाओं के चलते सुरक्षित है। हमारे अदृश्य खंबों को अदृश्य ताकतें ही देख सकती हैं। उन अदृश्य ताकतों को हम ही देख सकते हैं। यह अदृश्य से अदृश्य दृश्य की शक्ति का मामला है। मैं सिर्फ परिणाम की ओर संकेत कर सकता हूं। तुम सिर्फ बयान में शामिल हो जाओ, बाकी हम देख लेंगे।’
‘जब आसमान टिकाए रखने वाले खंबों को जनता ने नहीं देखा, तो उन्हें बनाने वालों की चिंता जनता क्यों करेगी? उसे तो लगता है, आसमान वहीं है। मुझे भी लगता है, वहीं है। मामला शायद टेंट वालों का है, जो इतना लंबा तंबू तानकर बैठे हैं कि लोग उसे ही आसमान मानकर काम चला रहे हैं।’
‘चलो जिद है, तो मान लो कि इतना बड़ा तंबू है कि नीचे जनता उसे आसमान मानकर ही निश्चिंत है, तो भी उसके प्राणों के लिए आसमान होने के विश्वास को जिंदा रखना जरूरी है। विश्वास का तंबू हिला, तो गजब हो जाएगा।’
‘नहीं, एक फायदा भी हो सकता है। असली आसमान दिख जाएगा। उसके असली चांद-तारे भी दिख जाएंगे। आकाश और तंबू की छत का पर्दा मिट जाएगा। जो बिजली गिरेगी, असली होगी। जो अंधड़ चलेगा, असली चलेगा। जो ग्रहण लगेगा, वह असली लगेगा। पब्लिक तंबू के तने आसमान से निकलकर असली आसमान तो देख लेगी।’
वे एक अनुभवी टेंट हाउस मालिक की तरह मेरे कंधे पर हाथ रखकर खड़े हो गए। बोले, ‘तुम्हारा पतन हो गया है।’ मैंने कहा, ‘आप आसमान की पतन समस्या पर बोल रहे थे।’
उन्होंने कहा, ‘आसमान उनका होता है, जिनका तंबू होता है। हम सालों से तंबू के धंधे में हैं। तंबू में रफू हो जाता है। आसमान में जरा रफू करके दिखाना।’
वे मेरे पास एक बयान की कॉपी छोड़ गए हैं। हिंदुस्तान पर आसमान गिरने से बचाने के लिए उस पर दस्तखत करना है। मुझे समझ नहीं आ रहा, गुड़गांव से बनारस तक उनका टेंट बचाने के दस्तखत से आसमान कैसे बच पाएगा?
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