उस किताब में एक रॉयल्टी रहती थी
- Yashwant Vyas
- Oct 5
- 8 min read
पांच महीने में पांच लाख कॉपी हों और बारह रिप्रिंट, उसके बावजूद सारा मुनाफा एक ही जेब में कैसे जा सकता है? ऊपर से इसकी क्या गारंटी है कि रिप्रिंट और संख्या सही-सही जाहिर की जा रही है? एक प्रकाशक हजार टाइटल छापता है। हर एक ‘प्रोजेक्ट’ दरअसल बाजार में उसका व्यापारिक निवेश होता है, पर आंकड़ों का मामला ‘हैंडल विथ केयर’ है।

हरचंद दाग एक ही ऐयार है मगर
दुश्मन भी तो छटे हुए सारे जहां के हैं – दाग़
ऐसा लगता है जैसे हिंदी की पवित्र धारा में कोई ‘वर्दी वाला गुंडा’ मॉमेंट घट गया है। कुछ को भरोसा नहीं हो रहा, कोई इस पर उतर आया है कि आखिर उन्होंने लिखा ही क्या है? या उस पर तो नहीं लिखा, इस पर क्यों नहीं लिखा। कुछ अपने शस्त्र तैयार कर रहे हैं कि वक्त आने पर इस तीस लाख की माया को ध्वस्त करेंगे। थोड़ी शांति हो तब तक टेक्नोलॉजी के विस्फोट और हिंदी के उत्सव की टीकाओं पर टिके रहो। कहीं-कहीं सदमा इस बात का है कि आखिर हिंदी के लेखक को इतनी रॉयल्टी मिल कैसे सकती है? हिंदी के लेखक को तो कुछ अनुवाद जुगाड़ कर एकजाई पैसे लेकर, सम्पूर्ण कॉपीराइट प्रकाशक के हवाले कर, अपनी एक्स्ट्रा चाय-पानी का इंतजाम करना चाहिए या कहीं फिट नौकरी करके हिंदी पर पार्टटाइम कृतज्ञता की वर्षा करनी चाहिए। या फिर, जरूरत पड़ने पर हिंदी के पाठक संसार की दरिद्रता पर प्रवचन देना चाहिए और प्रकाशक की दयानतदारी पर कृतज्ञ भाव रखते हुए ‘बड़ा निर्मम समय है’ गाते रहना चाहिए। यही उसका प्राप्य है।
अमेरिका में तीन संगठन हैं-द ऑथर्स गिल्ड, द रायटर्स गिल्ड और नेशनल रायटर्स यूनियन। रायटर्स गिल्ड फिल्म-टीवी और अन्य मामलों के लिए लेबर यूनियन है, जबकि ऑथर्स गिल्ड सबसे पुराना और बड़ा संगठन है जो किताबें लिखने वाले लेखकों के अधिकारों की रक्षा में लगा रहता है और नेशनल रायटर्स यूनियन फ्रीलांसरों के लिए है। ऑथर्स गिल्ड के 16,000 से ज्यादा मेंबर हैं। फ्लोरिडा की अदालत में 2023 में उसने 11 लेखकों की ओर से पब्लिशर्स के खिलाफ दावा दायर किया। प्रकाशक न ऑडिट करने देते थे, न संबंधित सवाल का सीधे उत्तर देते थे, ऊपर से लेखक को धमकाते थे कि ज्यादा किया तो उनकी किताबें मार्केट में नहीं दिखेंगी। (अपने यहां कथाकार गीताश्री ने कहा है कि कुछ मांगो तो आपकी किताब की हत्या हो जाएगी। हर प्रकाशक के यहां एक तलघर होता है, जहां किताबें दफन कर दी जाती हैं।) 1971 में आई जे.सी. जॉर्ज की किताब ‘जूली ऑफ द वुल्व्ज’ के मामले में 2014 में एक केस दायर हुआ था। ये ई-बुक के अवतरण के पहले के कॉन्ट्रेक्ट थे, लिहाजा रॉयल्टी देने, न देने के कानूनी नुक्ते निकाले जा रहे थे। रैंडम हाउस और रोजेटा बुक्स का मामला भी लगभग वैसा ही था। ऑथर्स गिल्ड और जॉन वाइली पब्लिशर्स का एक अन्य विवाद चीजों को और खोलता है कि आखिर रॉयल्टी का गणित क्या हो? एक प्रकाशक ने अपनी किताबें दूसरे प्रकाशक को बेच दीं। दूसरे ने कॉन्ट्रेक्ट का नया खाका बनाया। पहले छपे मूल्य पर दस प्रतिशत रॉयल्टी का करार था, इसने डिस्काउंट काटकर बचे पैसों पर रॉयल्टी कर दी, इस तरह मूल रॉयल्टी आधी रह गई। यदि आगे चलकर ‘बल्क’ या ‘मास’ सेल पर ‘डीप डिस्काउंट’ दिया गया तो लेखक के पास बचेगा क्या? ऑथर्स गिल्ड की आपत्ति इसी चालाकी पर थी। न्यू पब्लिशिंग स्टैण्डर्ड ने पिछले अप्रैल में एक लेख छापा था जिसमें साफ साबित किया गया था कि मुनाफे के बंटवारे में लेखक गैरबराबरी का शिकार होता है। कागज, स्याही, बाइडिंग, प्रिंटिंग, ऑफिस आदि के खर्चे यदि लेखक-प्रकाशक की कथित पार्टनरशिप में हैं तो मुनाफे में पार्टनरशिप कहां गायब हो जाती है?
एक बेस्ट सेलिंग पोलिश लेखक को अपने पब्लिशर के खिलाफ दावा ठोंकना पड़ा कि 5 से 15 प्रतिशत से ज्यादा कभी देने की बात नहीं होती जबकि उसकी किताब पर सारे खर्चे निकालकर बचे मुनाफे का बंटवारा गैर अनुपातिक है। सितंबर 2024 में अदालत ने फैसला दिया कि यदि गैर अनुपातिक रूप से मुनाफे का बंटवारा हो रहा है तो लेखक ज्यादा हिस्से की मांग का हकदार है। पांच महीने में पांच लाख कॉपी हों और बारह रिप्रिंट, उसके बावजूद सारा मुनाफा एक ही जेब में कैसे जा सकता है? ऊपर से इसकी क्या गारंटी है कि रिप्रिंट और संख्या सही-सही जाहिर की जा रही है? एक प्रकाशक हजार टाइटल छापता है स्टाफ का खर्चा उन सबमें बंटता है और हर एक ‘प्रोजेक्ट’ दरअसल बाजार में उसका व्यापारिक निवेश होता है। बाजार में सिर्फ किताबों को छोड़कर हर प्रोडक्ट की बिक्री का डाटा एजेंसियां जारी करती हैं, पर किताबों का मामला ‘हैंडल विथ केयर’ है। उसका सही आंकड़ा मिलना असंभव है। ऊपर से पाठ यह है कि लेखक तो साहित्य की सेवा कर रहा है और उसे गंभीर उत्तरदायित्व के तहत बाजार जैसी ‘छोटी’ बात नहीं करनी चाहिए।
दरअसल, किताबें अपने सांस्कृतिक अर्थों और मूल्यों के हिसाब से चाहे जो हों प्रकाशन उद्योग के लिए एक उत्पाद ही हैं। इनका खरीदा जाना, बेचा जाना, किराए पर लिया-दिया जाना पूरी अर्थव्यवस्था चलाता है। पल्प साहित्य का उद्योग इस सत्य को छुपाता नहीं था इसलिए बिक्री आधारित सीधे सौदे करता था और अपने निर्मम फॉर्मूले को कायम रखते हुए उसने अपने ‘ट्रेडमार्क’ लेखक तक पैदा किए ताकि जो जेनुइन लेखक हैं उनकी रोज-रोज की पैसों की चख-चख न सुनना पड़े। भारत में कर्नल रंजीत से लेकर राजवंश तक की मिल्कियत, ‘घोस्ट’ लेखक की नहीं प्रकाशक की है। वहां पैसा और लोकप्रियता है, पर साहित्य सेवा की कथित प्रदर्शनकारी नैतिक शर्म और मसीहा-कॉम्प्लेक्स नहीं है। मगर जब किताब एक प्रोडक्ट है और उसे पाठक खरीदेगा तो क्या बाजार के नियम अलग-अलग होंगे? हां, पाठकों की खोज और संवेदना के हिसाब से उन तक पहुंच के अपने रास्ते ज़रूर तलाशने होंगे।
आज जब समय बदला है, सेल्फ पब्लिशिंग, प्रिंट ऑन डिमांड, ऑडियो-वीडियो-ई-बुक सहित नया संसार खड़ा हो गया है। पर, हिंदी के साहित्यकार को उस बाजार की कमाई की तरफ देखना वर्जित है। वॉल स्ट्रीट जर्नल की एक रिपोर्ट 2019 में छपी थी जिसमें बताया गया था कि कुल बिकने वाली किताबों का पचास प्रतिशत ऑनलाइन प्लेटफॉर्म अमेजान ने बेचा। अमेजान सिर्फ किताबें वितरण नहीं करता, छापता भी है। ऑडिबल और किंडल के नए फॉर्म के साथ किताबों की जानकारी देने वाली सौ मिलियन रजिस्टर्ड यूजर्स की ‘गुडरीड्स’ का मालिक भी है। इस तरह वह खरीद नहीं, पढ़ने और लिखने का अंदाज भी बदल रहा है। वहां ‘जितने पेज पढ़े जाएंगे, उतना पैसा मिलेगा’ वाले फॉर्मूले से लेखक ‘पठनीयता’ का उत्पादन नहीं करेगा तो पैसा नहीं मिलेगा। यह ‘एज ऑफ सरप्लस फिक्शन’ है। जब कथित ‘पठनीयता’ के नाम पर बेगार बढ़ने लगी और पाठक चुनने लगा कि किसे हाथ ही न लगाए तो ‘एल्गॉरिद्म’ के हिसाब से ‘कैसे लिखें’ वाली किताबें भी छपने लगीं। कथाकार स्टोरी टेलिंग वर्कशॉप करने लगे। अंग्रेजी की देखादेखी भाषाई प्रकाशक भी दो पेज के बजाय दस पेज के अनुबंध भेजने लगे कि भविष्य में अनुवाद से लगाकर ऑडियो-सिनेमा तक में उनका हिस्सा होगा। लोकप्रिय साहित्य के सिरमौर सुरेंद्र मोहन पाठक तक का एक प्रकाशक को कहना था, ‘ये अनुबंध अधूरा है। इसमें सिर्फ एक ‘क्लॉज’ और जोड़ दें-जब लेखक की मौत होगी तो उसकी राख में भी इतना हिस्सा प्रकाशक का होगा।’ यह दिलचस्प है कि शर्तें परदेसी स्टाइल की होंगी, बर्ताव देसी होगा। लेखक को सोशल मीडिया पर बुकसेलर बनाकर खड़ा किया जा सकता है, बस उसके आगे पूर्ण विराम।
यह लतीफा लग सकता है लेकिन बड़ी सच्चाई है। किन किताबों को आगे लाया जाए और किन्हें ‘डंप’ कर दिया जाए, किन्हें सरकारी खरीद में डाला जाए, किसे मेले में जारी किया जाए-यह तय करना लंबे अर्से तक दीवार की तरह ठोस पर्दे में रहा है। यह तो सोशल मीडिया और इंटरनेट की तकनीक ने लेखकों को स्टार बनाना और कहानियां कहना शुरू करवाया तो पाठक संसार का ‘सिम-सिम’ खुल गया। वर्ना जो था सो था। मिसाल फिर बाहर की लें। टोनी मॉरिसन की पहली किताब ‘द ब्ल्युएस्ट आई’ का पहला संस्करण नाममात्र छापा गया था, जबकि न्यूयॉर्क टाइम्स और न्यूयॉर्कर में उसकी तारीफें छपी थीं। उनकी दूसरी किताब जब किसी सहृदय के हाथ लगी तो उसने ठीक से पेश किया और बिक्री आठ लाख कॉपी पहुंच गई। टोनी मॉरिसन बाद में नोबेल और पुलित्जर विजेता हुईं लेकिन ‘द ब्ल्युएस्ट आई’ को तभी कद्र मिली जब ‘ओप्रा बुक क्लब’ ने उसे उठाया। कनाडा के पोर्टल ‘द वॉलरस’ का कहना है, बड़े प्रकाशक पाठकों से धोखा करने के आदी होते हैं, वे चम्मच से जो खिलाना चाहते हैं, वो खिलाएंगे। दरअसल पब्लिशिंग इंडस्ट्री को जुए की समस्या है। वह ‘दांव’ पर भरोसा करती है। अब वह टिकटॉक के भाई ‘बुकटॉक’ से खेल कर लेगी जिसके सैकड़ों मिलियन यूजर हैं।
भला हो मानव कौल का जिन्होंने 2022 में इंस्टाग्राम पर पोस्ट किया कि हिंदी के सबसे बड़े लेखक विनोद कुमार शुक्ल को रॉयल्टी के नाम पर साल में कुल चौदह हजार मिले। शुक्ल जी 1971 से लिख रहे हैं। उन्हें पेन नोबाकोव, ज्ञानपीठ, अमर उजाला आकाशदीप जैसे सर्वोच्च सम्मान मिले हैं। उन्होंने दुखी होकर कहा कि उनकी किताबें बंधक हो गई हैं, वे उन्हें मुक्त करना चाहते हैं। पच्चीस वर्षों में उन्हें ये हासिल हुआ है। जैसे ही हंगामा मचा तो पता चला, जो रकम साल भर में मिलती थी उससे तिगुनी राशि हर महीने देने का प्रस्ताव आ गया। तो मान लें कि विनोद कुमार शुक्ल इतने ही बिकते थे पर जब ‘दीवार में एक खड़की रहती थी’ दूसरे प्रकाशक ने छ: महीने में 90 हजार बेच दीं और हिसाब स्क्रीन पर साझा किया तो सबके पेट में गड्ढा क्यों पड़ गया?
ये पाठक कहां से उग आए? अब दो में से एक ही बात सत्य हो सकती है – या तो श्राद्ध खिलाएं या जीवित व्यक्ति दिखलाएं यानी या तो पुरानी बिक्री में दोष था, या नए को बेचना आता है। आखिरकार प्रकाशक किताब को बाजार में बेचने के हिसाब से ही अपने ‘प्रोजेक्ट’ में लाता है, वह सही पाठक तक क्यों नहीं जाता? जाता है तो लेखक को बताता क्यों नहीं है? पाठक के सिर पर जबर्दस्ती ठीकरा क्यों फूटे कि वो हिंदी को बीपीएल कोटे में रखने का गुनहगार है।
यदि सब हितों के हिसाब से संयुक्त मोर्चे बना लें तब भी एक सीमा तक यह प्रपंच पहले छुपा रह सकता था, अब नई तकनीक में यह संभव नहीं है। कोई भी चीज यदि ‘एमआरपी’ लग कर जा रही है तो वह बाजार में है और लेखक को उसकी रचनात्मकता का सिला स्वाभिमान के साथ क्यों नहीं अर्पित होना चाहिए?
किशोरीलाल गोस्वामी कहा करते थे, मैंने जब भी लिखा है अपने दिल की लगी बुझाने के लिए, न किसी को रिझाने के लिए न राह सुझाने के लिए। किस्सों के उस्ताद गोस्वामी जी खूब चलते थे और उच्चभ्रू साहित्य में उन्हें खास जगह नहीं मिलती सिवाय इतिहास की एक पायदान के। इसका अर्थ यह नहीं है कि बिक्री के पैसों से साहित्य का मूल्यांकन किया जाए। लेकिन दूसरी तरफ यदि पैसा नहीं है तो प्रकाशन उद्योग में क्लासिक लेखकों की मृत्यु के बाद साल गिन-गिनकर पब्लिक डोमेन में आने की क्यों प्रतीक्षा की जाती है? अपना समय, अपना दुख, अपने सुख की कल्पनाएं और जीवन संघर्ष की प्राथमिकताएं अपना नायक तय करती हैं। लगातार त्रास और विवंचनाएं झेलते हुए जनमानस अपने क्रोध, अपने प्रेम, अपने प्रतिशोध और अपने स्वप्न कलाओं में देखता है। कलाएं मानवीयता की पक्षधर होकर ही उनकी झलक को पकड़ सकती हैं। ऐसे में पाठक और कला का रिश्ता कैसे देखा जाएगा? विख्यात उपन्यास ‘द प्राइज’ में नोबेल पुरस्कारों की असलियत खोलने वाले धुआंधार लोकप्रिय इरविंग वैलेस ने रिसर्च के दौरान तीन नोबेल कमेटियों में रह चुके एक मेंबर से पूछा, लेखकों के लेखक सामरसेट मॉम को नोबेल क्यों नहीं मिला? महोदय कुछ देर तो इधर-उधर की करते रहे फिर जब उन्हें जवाब नहीं सूझा तो बोले, मॉम कुछ ज्यादा ही ‘लोकप्रिय’ हैं। यानी कृति के साहित्यिक मूल्य पर कोई बात नहीं करेगा, साहित्यिक मूल्य पर बात की तो, बात पैसे पर चली जाएगी यानी कितनी ही ऊंची कृति हो, अगर वह लोकप्रिय हो गई, तो काम से गई। गोकि लोकप्रिय मसाला फिल्मों से काफी धन-धान्य पीटने वाले क्रांतिकारी मंचों पर भी प्रथम पूज्य हो जाते हैं। अगर चेहरे बिकते हैं और इसीलिए वे पवित्र प्रकाशक से एडवांस रॉयल्टी और बिक्री की गारंटी साथ-साथ पीट सकते हैं तो इसका उलट क्यों असंभव है? चेतन भगत की करोड़ वाली रॉयल्टी और कुमार विश्वास की किताब, कवि सम्मेलन या रामकथा-इवेंट की फीस में कोई साझा है?
जवाब अब्दुल माजिद ‘नश्तर’ जबलपुरी की रॉयल्टी के हिसाब से मिलेगा जिनके शेर को ‘अज्ञात’ के खाते से सोशल मीडिया पर घुमाया जा रहा है – पत्थर उबालती रही इक मां तमाम रात।बच्चे फरेब खाके चटाई पे सो गए।




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