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Yashwant Vyas

एक भूमिका, कुछ अफसाने

मित्रो, पिछले दिनों एक किताब की भूमिका लिखने का आग्रह मिला। मुझे यह कथा याद आई।

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मैं आपको फिर सुनाता हूं। मैंने भी सुनी थी।

मोईशे नाम का एक बढ़ई हफ्ते भर की मजदूरी लेकर लौट रहा था कि सुनसान गली में हथियारबंद लुटेरे के हत्थे चढ़ गया।

‘मेरे सारे पैसे ले लो’, मोईशे ने कहा, ‘मगर एक मदद कर दो : मेरी हैट में एक गोली दाग दो वर्ना मेरी बीवी मुझ पर यकीन ही नहीं करेगी कि मैं लुटकर आ रहा हूं।’

लुटेरे ने मेहरबानी कर दी। उसने मोईशे की हैट हवा में उठाकर एक गोली दाग दी।

‘जरा ऐसा दिखे कि मैं लुटेरों के गिरोह में फंस गया था’, मोईशे बोला, ‘वर्ना मेरी बीवी मुझे कायर भगोड़ा समझेगी। मेरे कोट पर तड़ातड़ कुछ गोलियां चला दो।’

डकैत ने कोट हाथ में लिया और हंसते हुए तड़ातड़ छेद डाला।

‘और अब…’

‘माफ करना दोस्त’, लुटेरे ने उसे रोका, ‘अब और छेद की मांग नहीं। मेरे पास गोलियां नहीं बची हैं।’

‘मुझे यही तो पता करना था’, मोईशे ने कहा, ‘अब मेरा माल वापस करो, मेरे हैट और कोट के नुकसान का हर्जाना निकालो और फूट लो। वर्ना इतना पीटूंगा कि मुसीबत हो जाएगी।’

लुटेरे ने माल फेंका और चंपत हो गया।

इस कहानी से आमतौर पर यह शिक्षा मिलती है कि मुश्किल हालात से निकला जा सकता है, दिमाग का इस्तेमाल करने में कभी देर नहीं होती।

दूसरी शिक्षा भी कुछ लोग देते हैं। उनका कहना होता है, इससे साबित होता है कि लुटेरे हमेशा बुद्धिमान हों, यह जरूरी नहीं।

मैंने तीसरी किस्म की एक और शिक्षा इससे प्राप्त की है। वह थोड़ी ‘सात्विक’ है।

हैट में छेद करके लुटने वाले की बीवी के सामने उसे बहादुर बनाए रखने की मदद एक भला काम है। पर इतना काफी है। लूट में इससे ज्यादा दयालुता मुसीबत का रास्ता है।

अगर कोई लुटेरा आपकी इतनी मदद कर रहा है कि बीवी के सामने आपकी लाज बच जाए, तो आपको आभारी होना चाहिए। गोलियां खत्म करवा कर अपना माल वापस लेने तक तो फिर भी ठीक है। लेकिन इतनी क्रूरता भी ठीक नहीं कि उसकी जेब से हैट-कोट के पैसे भी निकलवा लिए जाएं।

अगर लुटेरे हो तो इतने दयालु भी न बनो। अगर लुट रहे हो तो इतने क्रूर भी न बनो।

आमतौर पर भूमिकाओं में लोग इस तरह की कहानियां नहीं सुनाते। कुछ-कुछ गंभीर पृष्ठभूमि तथा विचारधारात्मक व्याख्यान देते हुए पाठक को रास्ता दिखाने की हालत-जैसी रहती है। ज्यादा बड़े और वरिष्ठ विद्वानों की भूमिका लगभग सर्टिफिकेट और आशीर्वाद की तरह ली जाती है। इससे उम्मीद की जाती है कि पाठक किताब उठा ही लेगा। मगर लेखक, जो सचमुच लेखक होते हैं, इस खामख्याली से ऊपर होते हैं। शायद प्रियजनों की भूमिका लिखवाकर वे आनंद महसूस करते हैं। उन विराट गंथों-ग्रंथावलियों की भूमिका भिन्न होती है, जिन्हें समझने के लिए एक अद्भुत, न खत्म होने वाली टॉर्च की जरूरत हो। कभी-कभी कुछ विकट, अनूठी चीजों को समझने के लिए एक बाहरी विद्वान मार्गदर्शक की जरूरत होती है। लोग उसे भी किताब की भूमिका समझ लेते हैं। पर वह भूमिका नहीं लैंस, टॉर्च या फीता होती है।

भूमिका लिखने के अनुभव भी विकट हैं। कहानी के बढ़ई और लुटेरे, भूमिका लेखकों और लेखकों, दोनों के आस-पास से गुजरते हैं। वे कभी बढ़ई का दिमाग देखते हैं, कभी लुटेरे की दयालुता देखते हैं। अपने किस्म की नैतिक शिक्षा का नया संस्करण तैयार करने के काज में लग जाते हैं।

लेखक कहता है, अभी एक अजब सी छटपटाहट है। पैंसठ पार के लोग ‘व्हाट्स एप’ और ‘फेसबुक’ में अतीत का धर्मयुग क्रिएट करना चाहते हैं। उससे नीचे के, आमिर खान के साथ हम लोग वाले दूरदर्शन पर सफलसत्यमेव जयते खड़ा कर देते हैं। भूमिका लेखक कहता है, पीठें थपथपाने, छाती पीटने, बाजा बजाने और कब्जा सच्चा साबित करने का माहौल है। चिटफंड कंपनियों की मलाई चखकर साल काट लेने वाले, एक तरफ किए जाते ही शोषण पर जनवादी व्याख्या का तूमार बांध सकते हैं। यह निर्मलता के विरुद्ध यश की धुंध का कारोबार बन जाता है।

ऐसे में संत रामपाल की आत्मकथा आए तो भूमिका कौन लिखेगा? साध्वी निरंजन ज्योति की कविताएं हों और ओवैसी की भूमिका हो तो क्या समां बंधेगा?

हाफिज सईद आतंकवाद का कारोबार करने की कला पर किताब लिखे, तो भूमिका बोको हरम के लीडर लिखेंगे या किसी अफगान तालिबानी नायक की कलम से ही टाइटल हिट हो जाएगा?

सयानों का दावा है कि धुआंधार भाषण ठोकने वाले रौबदार पत्रकार और वक्त का मिजाज समझकर सिद्धांत की मीनार खड़ी करने वाले कई चेहरे इसके लिए तैयार हैं।

मगर उनसे बड़े सयानों का कहना है, अफसाने बनाने वाले, भूमिका लिखने वालों से ज्यादा समझदार हैं।

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