अब यही बचा था। जो बात सब जानते हैं, वह बात कब, कैसे जाननी चाहिए, यह दिखाने के लिए बहस के औजार निर्मित करना बहुत बड़ा व्यवसाय है। राजनीति इस व्यवसाय के लिए अत्यंत आतुर उपभोक्ता और चतुर विक्रेता, दोनों की भूमिका झपटने को तैयार रहती है। कई कथित विद्वान इस व्यवसाय से अपनी रोजी चलाते हैं। कई चेहरे अपनी प्रासंगिकता बेच पाते हैं। कई के पास बरसों से प्रतिबद्धता की तिजारत की एकमात्र मुद्रा ही यही है। सत्ता से सतत जीवन जल पाते रहने की व्यवस्था इसी पाइप लाइन से होती है।
राजनीति का सारा विमर्श जल की पवित्रता पर व्याख्यान देने वाले उन महामनाओं के ठेके पर चला गया है, जो चांदी के अपारदर्शी गिलास में सुरापान करते हुए और भी जोरों से पवित्र जल-संहिता का पाठ करते हैं।
अभी, पिछले 72 घंटों में कई किस्से एक साथ हुए।

प्रधानमंत्री के मीडिया सलाहकार रहे संजय बारू ने अपनी किताब में बताया कि पीएम मनमोहन सिंह तो अपनी कैबिनेट भी नहीं तय कर सकते थे। जो कुछ तय करना था, वह तो सोनिया जी करती थीं। क्या यह दिलचस्प नहीं है कि इस सीधी-सच्ची, जानी-मानी बात को रहस्योद्घाटन मानकर सफाई दी जा रही है? मामूली से मामूली आदमी भी जानता है कि दस जनपथ वस्तुत: सभी का नियंता रहा है। एक चवन्नी कार्यकर्ता भी यदि भजन लिखता है, तो पहला शब्द वहीं से उठाएगा। मजा तो तब था, जब कोई किताब यह बताती कि पीएम ने सोनिया की मर्जी कभी पलटी भी थी। उन्होंने दस जनपथ से तय किए चेहरों के घोटालों की कालिख के लिए अपना चेहरा आगे करने से मना कर दिया था और इस्तीफा देने के लिए खड़े हो गए थे। ग्राम हल्दीखेड़ा, जिला मसालाबाद तक यह लतीफा स्वीकार नहीं होगा, क्योंकि पीएम बनाए ही इसलिए गए थे कि गुनाहों की फेहरिस्त चिपकाने के लिए एक अलग बोर्ड चाहिए। मीठा-मीठा गप, कड़वा-कड़वा थू! सब बुरा किया तुम्हारा, अब हम दुनिया बदलने के लिए आते हैं।
दूसरा किस्सा मुलायम सिंह के उदात्त विचारों का है। उन्होंने कहा कि लड़कों से गलती हो जाती है, बलात्कार हो गया तो क्या फांसी दे दें? इस पर घोर हंगामा हो गया। अबू आजमी ने सेवा में आगे बढ़कर विचार प्रस्तुत किया कि लड़के-लड़की दोनों को फांसी दे दो, क्योंकि लड़की सहमति से घूमे और कुछ हो जाए, तो उसका गुनाह भी उतना ही है।
इस पर धर्मनिरपेक्षतावादी समाजवादी महायोद्धाओं को नए चौंकाने वाले विमर्श का तूमार बांधने की क्या जरूरत है? बाहुबलियों को संरक्षण देने और बाकी कई किस्म के दांव खेलने में माहिर सैफई के उत्सवों से ही तो तीसरा मोर्चा बनता आया है। बलात्कार पर बेचारे लड़कों का जीवन बचाना तो एक सहज कर्तव्य है। कारगिल में ‘मुस्लिम विजय’ का रहस्योद्घाटन करते सेनापति के साथ जो सांप्रदायिकता के रथ रोक सकते हैं, उन पर बरसने में भला क्या बड़ाई है?
बनारस के पवित्रमना डॉ. रघुवीर सिंह की ‘बुद्ध कथा’ की भूमिका याद आती है। उन्होंने लिखा है कि बुद्ध कहते हैं, ‘जीवन दुख है।’ यह कथा दुख के दिनों में ही लिखी गई। वे काशी का एक चुनाव हारे और लोगों के चेहरे ही घूम गए। कांग्रेस को हिंदुओं की पार्टी मानकर मुसलमानों ने उसके खिलाफ वोट किया। बहुत बाद में युगलकिशोर बिड़ला ने उन्हें बताया था कि उन्होंने जनसंघ से उम्मीदवार हटाने का आग्रह किया था, किंतु एक नेता की जिद से हो न सका। वर्ना हिंदू वोट नहीं बंटते! अब आज 2014 में उसी काशी में केजरीवाल को बाहुबलि मुख्तार अंसारी से उम्मीद हो रही है। और महान लोगों को अयोध्या के रथी आडवाणी एक आदरणीय उपेक्षित बुजुर्ग लग रहे हैं, जिसे एक ‘सांप्रदायिक दैत्य’ ने किनारे कर दिया है।
और अंत में जशोदा बेन हैं। मीडिया का दुर्भाग्य कि उनके पास जशोदा बेन की कोई ‘बाइट’ नहीं है। विश्लेषकों का दुर्भाग्य कि वे ‘सामंतवादी दर्शन में जकड़ी हुई स्त्री’ का विस्फोटक बयान नहीं जुटा पा रहे। व्रत रखती, नंगे पांव रहती, चारधाम यात्रा पर निकलती एक स्त्री अपने जीवन को अपने मन के आंगन से जी रही होगी, यह विमर्श के व्यवसाय में खतरनाक बात है। विमर्श की खूनी प्यास उसकी स्थिर तस्वीर लेकर नाच रही है। जो रहस्य नहीं है, वह उद्घाटित करने की भूख, राजनीतिक सूप से भड़क रही है।
सब सबको जानते हैं। सब, सब जानते हैं। पर सब धंधे में हैं। विमर्श का धंधा सबसे चोखा है।
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