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Yashwant Vyas

कौन हैं, जिन्हें उनसे कष्ट है

यह दिलचस्प है कि जब केजरीवाल के रंजन भट्टाचार्य- राडिया टेप के संदर्भ से भाजपा-कांग्रेस-कॉरपोरेट के जोड़ का सवाल शुरू हुआ, तो मुख्तार अब्बास नकवी ने इसे ‘मासिक मंडी’ और ‘हिट ऐंड रन’ का खेल कहकर कन्नी काट लेने में भलाई समझी। वे कल तक जयपाल रेड्डी के हटाए जाने के पीछे एक दबंग कॉरपोरेट घराने की बात देख रहे थे।

कह रहे थे कि भ्रष्टाचार की माला और घोटालों के घुंघरू पहनकर यह सरकार ज्यादा नहीं चल सकती। लेकिन अब अहसास हुआ कि जब घुंघरू की झनकार

आधी रात के सन्नाटे में कहीं भीतरी इलाके में सुनाई दे रही हो, तब ‘हिट ऐंड रन’ का ‘हाटबाजार’ कहने में बड़ी शांति होती है। लगता है कि अगर कोई ओझा आकर इस झनकार से मुक्ति दिला दे, तो वे बड़ी दक्षिणा दें और छूटें। यह परेशानी नितिन गडकरी को भी हुई। ‘चार काम तुम्हारे, चार काम हमारे’ की शृंखला खुली, तो उन्हें अरविंद केजरीवाल में विदेशी दान-धन का हाथ दिखाई देने लगा। उन्हें महीनों बाद इलहाम हुआ कि अरविंद, अन्ना आंदोलन के ब्लैकमेलर हैं। अब जब रॉबर्ट वाड्रा को� क्लीन चिट और नितिन को जांच की झनकार सुनाई दे

रही है, तो नेताओं के समूह को समझ में नहीं आ रहा कि चींटियों को कैसे और कितनी बार रौंदे? वे ऐसा कोई फ्लिट-हिट खोज रहे हैं, जो स्प्रे करते ही इन सबको उड़ा दे। जिन्हें केजरीवाल से कष्ट है, उन्हें भिन्न किस्म की चिंताएं हैं। जैसे एक विश्लेषक ने फरमाया कि कब तक ‘पोल खोल’ चलाएंगे? पार्टी चलाने के लिए जो ताकत चाहिए, उनके पास तो होने से रही। महत्वाकांक्षी आदमी है, जनता तो सिर्फ तमाशा देखती है। टीवी के कैमरे बंद करो, केजरीवाल खत्म! दूसरे एक विश्लेषक ने राय दी है कि केजरीवाल को क्या करना चाहिए था। उनकी रणनीति क्या होनी चाहिए थी।

उन्हें भ्रष्टाचार को केंद्र में लाने और साबित करने में ऊर्जा खत्म करने के बजाय शांति से आरटीआई का कामकाज करना चाहिए था। तीसरे एक राजनीतिक मामलों के धुरंधर विशेषज्ञ ने कहा है कि कब तक उन्हें मामले मिलेंगे? सबको सब पता है। उनके कहे में कुछ भी नया नहीं है। सिर्फ री-पैकेजिंग है और यह मसाला भी एक दिन खत्म हो जाएगा।

ऐसे लोग भी हैं, जो चाय की गुमटियों पर भी केजरीवाल के शुभचिंतक बनकर ज्ञानवाणी बांट रहे हैं- ‘अरे कम से कम एक पार्टी से बनाकर रखते। सब दुश्मन बना लिए। यह तो सिस्टम है, चार के खिलाफ बोलना है, तो चार साथ रखो।’ वैसे भी हाल में प्रमोशन पाए सलमान खुर्शीद ने पहले ही कह दिया था कि कांग्रेस हाथी है और केजरीवाल चींटी। और, दिग्विजय सिंह ने फरमा दिया था कि हमारे पास भी भाजपा के ऊंचे लोगों के रिश्तेदारों के चिट्ठे हैं, पर ‘नैतिकता’ का तकाजा है कि वे खोलते नहीं।

इस हिसाब से तो केजरीवाल सर्वाधिक अनैतिक व्यक्ति हैं। उन्हें अनिवार्यताः भाजपा या कांग्रेस की बी-टीम होना चाहिए। सबसे उत्तम तो यह होगा कि वह उस कॉरपोरेट घराने की सोशल ब्रांडिंग टीम बन जाएं, जो कांग्रेस और भाजपा, दोनों से अपनी ए-टीम का रोल करवा सके। यदि यह भी ठीक न लगता हो, तो उन्हें उपदेश देने वाले कुछ एनजीओ समूहों से मिलकर खामोशी से गांव-देहात के कल्याण के लिए कूच कर जाना चाहिए।

कितना अजीब है, और त्रासद भी, कि एक व्यक्ति जो कॉरपोरेट घरानों और सत्ताधारी या सत्ताकांक्षी राजनेताओं की जमात के चारित्रिक पिकनिक की तसवीर को केंद्रीय विमर्श का हिस्सा बना दे, उसके विफल होने की कामना और भविष्यवाणियां करने में आनंद लिया जा रहा है। रॉबर्ट वाड्रा-डीएलफ को निजी किस्सा बताने के लिए पहले दिन ही वित्त, कंपनी और कानून विभागों के मंत्री क्लीन चिट लेकर उतर आए थे।

फिर तो नीचे तक अफसरों में क्लीन चिट देने की होड़ लग गई। इन तथ्यों की जानकारी संभवतः कई के पास रही होगी, लेकिन साहस जिसने किया, उसके कंधे पर कलम रखकर ही खबर बन सकी। येदियुरप्पाई मुहावरे के समय में यदि नितिन गडकरी का सार्वजनिक आचरण बचाव और हमले की कांग्रेसी मुद्रा का न होकर पारदर्शिता का होता, तो वाजपेयी जी के दामाद या सोनिया जी के दामाद का मुहावरा उनकी देहरी के बाहर रखवाली कर रहा होता।

मगर ऐसा होता नहीं है। जब सभी समूह यह पाते हैं कि उनके जीवन के रहस्यों को शर्म का केंद्र बनाया जा सकता है, तब वे शर्म के विरुद्ध एक नैतिक सिद्धांत खड़ा कर देते हैं। इससे पहले वे एक-दूसरे के बारे में शर्म के विषयों का विस्तार खोज रहे होते हैं। इस विस्तार में तीसरे पर्यवेक्षक की उपस्थिति मात्र उन्हें बाहरी आदमी का हस्तक्षेप लगती है। अतंतः घुटना पेट की तरफ ही मुड़ता है। दोनों समूह एकत्र होकर उस तीसरे पर्यवेक्षक को नष्ट कर देते हैं, जो दोनों के साझे रहस्यों का उद्घाटन करने की मुद्रा में प्रतीत होता है। यदि वह पर्यवेक्षक शर्म के विरुद्ध उनके नैतिक सिद्धांत का थोड़ा भी साझीदार हो जाए, तो वे उसका भव्य स्वागत करते हैं और उसे महान ‘गैरसरकारी सामाजिक क्रांतिकारी’ कहकर खेल से बाहर कर देते हैं। इस व्यवस्‍था में कई पर्यवेक्षक ‘पालतू’ हुए हैं और वे राजनीति को चोट न पहुंचाने वाली विशिष्ट क्रांति के योद्धा भी बने हुए पाए गए हैं।

यह अपने समय का सबसे ऐतिहासिक उदाहरण है कि हमने कॉरपोरेट राजनीति का नया संस्करण गढ़ लिया है और उम्मीद कर रहे हैं कि केजरीवाल, आईपीएल (इंडियन पॉलिटिकल लीग) में सिक्सर लगाकर चीयर गर्ल्स की तालियां बटोरें या नीलामी से ही बाहर हो जाएं।

कुछ देर के लिए मान लें कि केजरीवाल का सिक्का खोटा साबित कर ही दिया जाएगा, तो इससे मुद्रा बाजार के मुंशियों को क्या फर्क पड़ेगा? फर्क तो उन्हें पड़ेगा, जो अकेले सिक्के के भरोसे खाली झोला लिए व्यवस्‍था के वीराने में रोटी खरीदने निकलते हैं।

शुभ-शुभ बोलिए, वह खाली झोले वाला आम आदमी सुन रहा है।

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