गरीबी सौ टंच गरीबी होती है। कांग्रेस सौ टंच गरीब है। इसीलिए उसके नेता प्रेमपूर्वक अपनी महिला सांसदों के सम्मान में सौ टंच माल का सर्टिफिकेट जारी करते हैं और बारह रुपए में मुंबई में पेट भरने का रास्ता दिखाते हैं।
गरीब होने के लिए माल का होना अयोग्यता है, लेकिन यदि कोई गरीबी ‘टंच माल’ कही जाए तो वह गरीबी से ऊपर उठ जाती है। सौ प्रतिशत गरीबी का जूता टंच माल के सर्टिफिकेट के नाप का होता है। इसीलिए प्रति सप्ताह दो घोटाले के ‘टंच’ रिकॉर्ड के साथ लगभग सभी कांग्रेसी विद्वान गरीबों को समझा चुके कि तुम मान भी जाओगे कि तुम सौ टंच गरीब हो, टंच माल तभी हो सकते हो जब चुनाव या दंगों की जरूरत होगी। गरीब गंभीरतापूर्वक सोच में पड़ा है कि वह अपना ‘टंचत्व’ किस तरह बरकरार रखे कि बारह रुपए से पेट भरकर इंसाफ के तराजू पर खरा उतर सके।
वैसे, आमतौर पर गरीब को सोचने का समय नहीं मिलता। वह मॉल में जाते हुए माल को या ट्रैक पर कोयले से भरी मालगाड़ी को भी उस तरह नहीं देख पाता, जैसे कांग्रेस के प्रेमी देख लेते हैं। माल की समझ के लिए दृष्टि चाहिए। दृष्टि के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों का विटामिन चाहिए। यह विटामिन योजना आयोग आदि से आएगा या महालेखा नियंत्रक-परीक्षक आदि के जरिये जमीन पर बिखर जाएगा-यह तय करने के लिए बाजीगर मिनिस्टर चाहिए। बाजीगर मिनिस्टर को ‘टंच’ सरकार चाहिए। और, टंच सरकार के लिए सौ टंच माल चाहिए।
सौ टंच गरीब सौ टंच माल के इस विराट महत्व को समझ नहीं पा रहा और जनपथ पर खड़ा-खड़ा बिला वजह गरीबी की रेखा और पेट भरने के लिए जरूरी माल के मूल्य पर हल्ला मचा रहा है।
कुछ गरीबों को अभी भी लगता है कि वे जमकर माल खाने वाले ईमानदार, धर्मनिरपेक्ष और राष्ट्र निर्माता किस्म के सज्जनों के टीवी-संभाषणों से ‘टंचत्व’ का स्वर ग्रहण कर सकते हैं। वे माल की लोकेशन और उसके टंच-नाप का उपकरण खोजते रहते हैं। वे खेल मंत्रालय से निकलकर मानव संसाधन में घुसते हैं। मानव संसाधन से संचार विभाग होते हुए बाहर आते हैं, तो पता लगता है कि कोयला मंत्रालय उनकी सिगड़ी के कोयले जब्त करके ले गया है। जब वह कुछ दे-दिलाकर तहकीकात करता है, तो पता चलता है कि खाना पकाने के लिए उसकी सिगड़ी का कोयला भले ही उसका माल हो, मगर माल का ‘टंचत्व’ तो सरकार ही तय करेगी।
सरकार भी क्या करे? एक अकेली सरकार और हर एक को सौ टंच माल! कहां से लाए? गरीब सोचता है, सरकार उसकी परवाह नहीं करती। सरकार का पोस्टर कहता है, गरीब है कहां? वहां तो बच्चे मेरिट में गोल्ड मैडल झटकते, पोलियो की बूंदें पीते, फ्री का पीसी-टैबलेट लेते और मुफ्त के राशन में लोट-पोट होते दिखाई दे रहे हैं। पोस्टर पर जब सौ टंच माल है, तो ये गरीब किस बात पर अपने टंचत्व का रोना रो रहे हैं?
कुछ समाज विज्ञानियों और सरकारी मार्गदर्शकों का मानना है कि स्त्रियों पर भद्दा कमेंट करने के लिए ‘माल’ शब्द का इस्तेमाल किया जाता है। कुछ टीवी महारथियों का विचार है कि रुपये से लेकर अफीम तक, जिसमें भी ‘प्राप्ति’ के आसार हों, वह माल है। कुछ राज-अर्थशास्त्री तो यह भी मानते हैं कि उच्चारण दोष से बड़े-बड़े ‘मॉल’ भी ‘माल’ हो जाते हैं, इसलिए गरीबों को मुहावरों में फंसने की बजाय भविष्य को टंच बनाए रखने में ऊर्जा लगानी चाहिए। कुछ सरकार विशेषज्ञ मीडिया एक्सपर्ट यह राय देते हैं कि जौहरियों और सोने-चांदी के मामले में ‘टंच’ का मुहावरा खरा होता है, इसलिए गरीबों को उसकी तरफ ध्यान ही क्यों देना चाहिए?
इतनी सारी सलाहों से गरीब कन्फ्यूज हो गए हैं। वे भूखे पेट चावल का मांड पीकर पेट फुलाने के बाद तय करेंगे कि उनकी तोंद कितनी मालदार दिखाई देती है।
सुनते हैं सरकार को यह भी पता चल गया है। वह ‘सौ टंच माल’ और ‘सौ टंच गरीबी’, दोनों को अपने पोस्टरों पर इस्तेमाल करने जा रही है।
कृपया चावल के मांड का भाव किसी कांग्रेसी लीडर को न बताएं, वरना वह भी सौ टंच माल में बदल जाएगा। तब सौ टंच गरीब, अपने पेट को कैसे फुला पाएंगे। और आप जानते ही हैं उस हाल में गरीब सरकार के पोस्टरों पर मॉडल कहां से आएंगे?
और अंत में बताया गया है कि मैक डोनाल्ड वाले ठसाठस पेट भरने वाला नया बर्गर लाने जा रहे हैं। यह बारह रुपए का होगा और उसका नाम मैक बब्बर होगा। -एक पाठक का एसएमएस
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