तुलना करना साहस का काम है। प्रेम में अपना सबसे सुंदर, विलक्षण और अद्वितीय ही लगता है। वह अद्वितीय तो खैर होता ही है क्योंकि एक जैसा एक ही मिलेगा। पर सुंदरता और प्रतिभा का पैमाना प्रेम के हिसाब से तय हो तो जीवन दार्शनिक हो जाता है।
इसी दर्शनशास्त्र के सहारे पिछले दिनों अमित शाह को देखकर लोहिया याद आए। या यों कहें कि जब तुलना का मसला उठा तो मित्रों ने कहा कि चलो शांति हुई। लोहिया के कुछ गुण बिल्कुल पता नहीं थे, अमित शाह के भरोसे उनका भरपूर अध्ययन किया जा सकेगा। जिन्होंने लोहिया को नहीं देखा-जाना, वे अमित शाह पर शोध अध्ययन करके लोहियावाद पर डॉक्टरेट अर्जित कर सकेंगे।
मुलायम सिंह यादव में भी लोगों को लोहिया दिखते हैं, शिवपाल सिंह यादव में भी उनके दर्शन होते हैं। कुछ भक्तों को लालू और नीतीश में भी उनके दर्शन होते होंगे। दर्शन का तो मामला इतना गहरा है कि कुछ लोगों को बेर में शंकर, हथेली में इराक के बंकर नजर आते हैं। पपीते में चीन, गोभी में रूस भी नजर आ जाता है। गांधी तो खैर अभी थोक में नजर आते हैं। गांधी के रीजनल, लोकल और हाइपर लोकल संस्करण चल रहे हैं।
एक सुंदर कल्पना थी कि चांद में भी रोटी नजर आती है। भूख कल्पनाओं को आकार देती है, चाह रूप भरती है, अभाव मन बहलाने की युक्तियां खोजने को धक्का दे देता है।
एक सज्जन रोजाना पार्क में जाकर बैठते थे और पीपल का पत्ता उठाकर उसकी शिराओं को सहलाते थे। मैंने उनसे वजह पूछी तो वे सकुचाए। उन्होंने बताया कि बचपन में उन्होंने एक कन्या का दुर्दम्य पीछा किया था। पकड़े गए तो पिटाई जहां हुई वह पीपल के नीचे का देवालय था। वे देवालय भूल गए, लेकिन पीपल के पत्ते को सहलाते हैं। दुर्दम्य अब भी है। विशिष्ट मामलों में दो-एक बार जेल भी हो आए हैं लेकिन बचपन के अपराध को पीपल के पत्ते में समोकर सारी धाराएं निरस्त करने में लगे हैं। यह जो दर्शन भाव था कि चलो फिर वो गुनाह हो जाए तो उसके चलते पीपल के पत्ते की नई पीढ़ी पर यह संकट आ पड़ा।
अमित शाह भाजपा के लोहिया हुए कि नहीं यह अलग बात है लेकिन कभी ‘इंडिया इज इंदिरा’ या ‘इंदिरा इज इंडिया’ का दर्शन तो स्थापित हो ही गया था। जिन्हें यह पता होता है कि वे योग्यताओं के थर्ड क्लास में बैठकर भी जिंदगी की बालकनी का मजा ले रहे हैं, वे गजब के यथार्थवादी होते हैं। उन्हें माओ-स्तालिन कह दो चलेगा, मार्क्स-मुखर्जी कहो चलेगा, लिंकन-लूथर कहो और भी चलेगा। वे अपने नाम की चालीसाएं और भक्ति ग्रंथ कौतुक से देखते हैं और जनता से कहते हैं- ‘ये प्रेम है। हम तो बारिश के डबरे हैं, लेकिन आपकी वजह से सागर का आकार पाया है। आओ डूब जाओ।’
पब्लिक और दीवानी हो जाती है। डबरे को छोड़ सागर पर कविताएं शुरू कर देती है और तुलना का धंधा सारे बांध तोड़कर बह निकलता है। जो डूबे सो पार।
कई बार किस्सा आता है, प्याज झोले में भरकर ले जा रहे एक सज्जन बम ले जाने के आरोप में पकड़े गए। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी हो गए। आजादी से पहले के प्याज ने आजादी के बाद का सेनानी ताम्रपत्र लूटने में उनकी मदद की। उनकी कल्पना शक्ति आज भी इतनी तीव्र है कि वे नाश्ता ‘नेताजी सुभाष बोस ने कैसे कंधे पर हाथ रखा था’ से शुरू करते हैं तो खाना, ‘भगत सिंह ने मुझे एक झप्पी दी’ पर खत्म करते हैं।
यह पराक्रम है, जो तुलना को बेवा होने से रोकता है। महान लोगों की स्मृतियों का पुनर्पाठ करवाता है।
सब कोई झेन संत तो होते नहीं जो संशय से दर्शन में उतरें। एक ऐसे संत को सपना आया कि वह तितली बन आकाश में तैर रहा है, फूलों पर बैठ रहा है, यहां-वहां खुशबू और रंगों में उतर रहा है। जागा तो पाया कि वह बिस्तर पर लेटा इंसान था। बड़े सोच में पड़ गया, ‘क्या मैं पहले आदमी था जो तितली होने का सपना देख रहा था या, अब मैं तितली हूं जो आदमी होने का सपना देख रही है?’
आजकल ज्यादातर संत सीकरी में रहते हैं और सीकरी में ऐसे फालतू स्वप्निल संकटों का कोई काम नहीं है। वहां कुछ संदेह शेष नहीं है। सब संत हैं, सबकी ब्रांडिंग महासंतों की है, वे भारतेन्दु हरिश्चंद्र और राममनोहर लोहिया को अग्रवाल-नायक में संक्षिप्त करने को प्रस्तुत हैं। प्रेमचंद राष्ट्र के बजाय कायस्थ-नायक हो जाएं तो गोदान का होरी क्या कर लेगा? सीकरी यूं हो रही है कि गांधी जल्दी ही वैश्य-नायक फ्रेम में कैद करके लाए जाएं तो दिल खिल जाएगा। तो मित्रों, जो कंकर है, वह शंकर से तुलना का मजा ले। जो पानी है, वह गंगा से नीचे न उतरे। जो धूल है, वह पहाड़ के अलावा किसी से बात ही न करे। समय ‘महा’, ‘अति’, ‘मेगा’, ‘मल्टी’ आदि-इत्यादि का है।
जो आया सो बोला। जो पाया सो खोला।
कोई अकबर बना घूम रहा है, कोई शाहजहां!
कोई छुट्टी पर भी जाए तो ऐसी उम्मीद कि वह बुद्ध बनकर लौटेगा। लोहिया-गांधी भी अब लखनऊ-पटना-चंपारन कहां जाते हैं।
उन्हें पता है, जिसे बनाना है वह जनता अपने नए लोहिया-गांधी खुद बना लेगी!
Hozzászólások