करोड़ों का दांव खेल रही लोकप्रिय फिल्मों का कारोबार मार्क्सवाद, लोहियावाद या हिंदूवाद की सेवा में नहीं चलता।यह इंडस्ट्री जोखिमों को
कारोबारी चालाकियों से निरस्त करती है। और वक्त जरूरत उन चालाकियों को साहस कहती है।
काफी देर से यूपी और बिहार की नींद खुली है। उन्हें पता लगा है कि करोड़ों क्लब में शामिल हो चुकी पीके को टैक्स फ्री हो जाना चाहिए। संयोग है कि दोनों के मुख्यमंत्री भाजपा और मोदी के मारे हैं। उन्हें ईश्वर के नाम पर चल रहे पाखंड को उड़ाती ‘ओएमजी’ या ‘ओह माय गॉड’ टैक्स फ्री करने लायक नहीं लगी थी। न ही उन्हें तब ख्याल आया, जब पीके पर्याप्त कमाई कूट रही थी। उन्हें ख्याल तब आया, जब कुछ छोटे-मोटे संगठन ‘हिंदू-हिंदू’ चिल्लाने लगे। इन्हें लगा कि अरे, यह तो धर्मनिरपेक्षता को बचाने का मौका आ पड़ा है। चलो टैक्स फ्री करो।
जलाने में मजा है। जले हुए पर नमक डालने में और मजा है।
सो, मस्त पीके को भी समझ आ गया कि पॉलिटिक्स हो जाए, तो इस गोले पर धंधा थोड़ा और बढ़ जाता है। उसकी जेबें भरती ही चली जा रही हैं, तो इसलिए नहीं कि कुछ लोग विरोध कर रहे हैं, बल्कि इसलिए कि बहुसंख्यक दर्शक जमकर ठहाके लगा रहे हैं। यह वह दर्शक हैं जो ‘किक’ और ‘धूम’ पर भी करोड़ लुटाता है। ‘ओएमजी’ का मूल नाटक भी थिएटर में हिट था और वह तो भगवान पर मुकदमा चलाने तक का मजा ले रहा था। पर उसमें धर्मनिरपेक्षता के धंधे की संभावनाएं खोजी नहीं जा सकीं, इसलिए वह सामान्य आनंद भाव में ही गुजर गया। पीके, बाल पॉकेट बुक्स में लिखी गई फंतासियों का आइडिया भर है, जिसमें समकालीनता का छौंक लगाया गया है। छोटे-छोटे लतीफों से फिल्म एक स्टार-स्टाइल में धांय-धांय करती है। हरिशंकर परसाई ने बरसों पहले ‘टॉर्च बेचने वाला’ कहानी लिखी थी। उसमें बरसों बाद दो दोस्त मिलते हैं। एक बाबा बन गया है और दूसरा टॉर्च बेचता है। टॉर्च बेचने वाला कहता है, ‘तुम्हारा मेरा धंधा एक है। तुम भी अंधेरे का डर दिखाकर अपना माल बेचते हो।’ इस वाक्य के भरोसे पीके भी दुकान लगाकर बताता है। अब आमिर खान की मार्केटिंग से ‘पीपली लाइव’ जैसा नुक्कड़ नाटक चल जाए और ‘जेड प्लस’ जैसी व्यंग्य फिल्म को सिनेमाघर भी न मिले तो ठीकरा किसके माथे? बाजार के माथे!
इस घुमाव से हम फिल्म की असली डायनेमिक्स पर आते हैं। अयोध्या का रथ चलाने वाले लालकृष्ण आडवाणी और उनकी बेटी प्रतिभा आडवाणी का फिल्म की शुरुआत में ही आभार प्रकट किया गया है। कोई हैरत नहीं कि निर्देशक राजकुमार हिरानी की उनसे करीबी हैं और श्रीश्री रविशंकर का भी उसमें आभार है। करोड़ों का दांव खेल रही लोकप्रिय फिल्मों का कारोबार मार्क्सवाद, लोहियावाद या हिंदूवाद की सेवा में नहीं चलता। व्यक्तिगत सिद्धांतों के चलते एक फिल्टर अवश्य हर व्यक्ति लगा सकता है, लेकिन सुरक्षा और सफलता के सिद्धांत सर्वोपरि होते हैं। जो लोग मोहम्मद रफी के गाये गीतों से उन्हें ‘धर्म से ऊपर’ बताने लगते हैं, उन्हें भी पता होता है कि यह गीत उन्होंने उस पात्र के खाते में गाया है, जिसे डायरेक्टर ने बनाया है। यह उनका व्यक्तिगत विश्वास नहीं है। इंडस्ट्री आज उस मुकाम पर पहुंची है, जहां युसूफ खान को कभी ‘दिलीप कुमार’ नाम धरना पड़ता था, वहां ‘दिलीप’ से ए.आर. रहमान बने व्यक्ति को समस्त प्रेम प्राप्त है।
मेहबूब को ‘मदर इंडिया’ की रिलीज तक सुनील दत्त-नरगिस के ब्याह की खबर रोकने की जरूरत आन पड़ी थी। अब ‘हर-हर महादेव’ का टीवी सितारा खुलेआम पार्टियों में घूम सकता है। यह इंडस्ट्री जोखिमों को कारोबारी चालाकियों से निरस्त करती है। और वक्त जरूरत उन चालाकियों को साहस कहती है। ‘चक दे इंडिया’ नामक फिल्म मूलत: हॉकी खिलाड़ी मीररंजन नेगी की कहानी पर आधारित थी। नेगी ने हार के दाग से पाकिस्तानपरस्त, गद्दार होने का आरोप झेला था। कहानी में दम था, लेकिन नेगी के हिंदुत्व के मुकाबले ‘कबीर खान’ के धर्म में ज्यादा बड़ी व्यावसायिक किक की संभावनाएं थीं।
फिल्मकार ने वास्तविक घटनाओं के पेंच के लिए सैट पर मीररंजन नेगी को पर्दे के पीछे बिठाए रखा, मगर पर्दे की कहानी कबीर खान की धर्मनिरपेक्षता के मसाले भरकर ही बनी। नेगी की कहानी का मूल्य था लेकिन, धर्म बदल देने से वह अचूक धंधे में बदल गया। शाहरुख की व्यक्तिगत छवि से सज्जित बॉक्स ऑफिस पर इसे एक मारक अस्त्र के तौर पर चलाया गया। नेगी को कौन पूछे?
‘सच्चा मुसलमान’ वाला संवाद, राजकुमार से लेकर अमिताभ बच्चन तक के तमाम मुस्लिम पात्र सच्चाई के सबूत के तौर पर बोलते रहे हैं और लोगों ने तबियत से तालियां बजाई हैं। लेकिन बाकी मामलों में बड़ी सावधानी रखनी पड़ती है। फिल्म दो महीने डब्बा बंद रहे तो भी भारी नुकसान उठाना पड़ सकता है। धंधे के लिए यह जोखिम कौन उठाए। एम.एफ. हुसैन, जो खूब ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ की बहसें लूटते रहे, ‘मीनाक्षी’ के दूसरे शो में चार मुसलमानों का विरोध सुनते ही हाथों-हाथ गाना हटाकर मुक्त हो गए। बाद में बड़े प्रोजेक्ट पर उस कतर की नागरिकता ले ली, जहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और धर्म का रिश्ता क्या है, यह बताना जरूरी नहीं है। पीके में भी यहां तक उत्तम माना गया कि, ‘मुसलमान धोखेबाज होते हैं यह किसने सिखाया’ यह सुरक्षित भाव से बोल दिया जाए। इसके लिए एक पाकिस्तानी युवा, बेल्जियम की पाकिस्तान एम्बेसी का जबर्दस्त संवेदनशील स्टाफ आदि-आदि प्रस्तुत है। लेकिन, धमाके के वक्त भूल से भी किसी संगठन का नाम नहीं आता। ईसाई पादरी द्वारा आदिवासियों को धर्मसंदेश देने के बैक ड्रॉप में धर्मांतरण पर सीधे-सीधे एक आदिवासी को यह कहते हुए तो दिखा दिया गया है कि ‘अगर ईश्वर चाहता कि मैं उस धर्म में पैदा होऊं, तो वहीं पैदा करता’ मगर जिहाद पर कोई टिप्पणी करने से बचते हुए मलाला के सुधारवादी संकेत से काम चलाना सुरक्षित समझा गया है।
बहरहाल, एक फिट फिल्म में सार्थक मनोरंजन हो तो उसे चालू ‘दबंग’ से ऊपर हिट मिलना ही चाहिए। सो, फालतू हल्ला बॉक्स ऑफिस पर स्वयमेव निरस्त हो गया। अब उस पर सिद्धांतों का मजा लिया जा रहा है।
अंत में, अब इंडस्ट्री की डायनेमिक्स का एक और मजा देखिए। जेल में गया संजय दत्त, ‘खलनायक’ से सुपर हिट होता है और दुबारा जेल में घूमते हुए वह फिर से प्रेम-पात्र बन जाता है। जेल में रहने के दौरान भी ज्वैलरी की एक कंपनी उसके सपत्नीक विज्ञापन धड़ाधड़ चलाती है। कोई आंदोलन नहीं होता, कोई बिक्री नहीं घटती।
तो इसका मतलब क्या है? यही कि, पाप-पुण्य, नैतिकता और मूल्यों से मनोरंजन के बाजार की शिनाख्त नहीं होती। अन्ना आंदोलन और सत्यमेव जयते से पीके का मिश्रण तैयार करते हुए बाजार विशेषज्ञ आमिर का बिम्ब अवश्य बदल जाता है। सो, इसी वजह से है पीके मस्त और बाजार ध्वस्त!
हरि बोल!!
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