हमारे एक साथी ने नैतिक संकट का प्रश्न उठाया है। वे समाचार लिख रहे होते हैं, तो आजकल उन्हें यह संकट बुरी तरह घेर लेता है। इतने सारे ऊंचे और आदरणीय लोग जेल जा र
हे हैं या जेल जाकर लौटते ही लंबे इंटरव्यू ठोक रहे हैं कि उन्हें समझ नहीं आ रहा है कि ‘थे’ लिखें या ‘था’।
व्याकरण कहता है, जब किसी आदरणीय के बारे में वाक्य रचना करनी होती है, तो ‘थे’ लिखेंगे और समाजकंटक या उम्र में छोटे को ‘था’ लिखा जाएगा।
अब विंदु दारासिंह जेल गया ‘था’ या ‘गए थे?’ संजय दत्त आर्थर रोड से यरवदा जेल ले जाए ‘गए थे’ या ले जाया ‘गया था’?
संकट काफी बढ़ रहा है। बहुत साल पहले एक अखबार में खबर छपी कि ‘कश्मीरी हीरो’ अमानुल्ला खां गिरफ्तार कर लिए गए। वे एक सम्मेलन में भाग लेने यहां आए हुए ‘थे’। एक पाठक ने मुझसे पूछा, एक दिन पहले जो खबर छपी थी, उसमें अमानुल्ला के लिए ‘थे’ नहीं, ‘था’ इस्तेमाल किया गया था।
एक अन्य मामले में भी यही उत्सुकता उन्होंने उठाई थी, जब उसमें संजय दत्त के टाडा में बंद करने के वक्त ‘था’ और जमानत-रिहाई के वक्त ‘थे’ दिखा था। हाजी मस्तान से जुड़ी खबरों में थोड़े दिन यही गफलत मची रही कि ‘था’ लिखें या ‘थे’? फिर दो-चार चुनावों के बाद तय हो गया कि उनके साथ ‘थे’ ही लगेगा।
दाऊद के बारे में भ्रम नहीं है और हर आदमी ‘था’ चलाता रहा है, लेकिन हवाला कांड वालों के बारे में कभी ‘था’, कभी ‘थे’ का खेल जारी रखा गया। अनुमान है कि कभी-कभी संवाददाता भ्रमित हो जाते हैं या आंदोलित हो जाते हैं कि गणमान्य और अभियुक्त की हैसियत का समीकरण क्या है, इसलिए शीर्षक में ‘था’, लीड में ‘थे’ और भीतर के मैटर में कहीं ‘था’ या कहीं ‘थे’ होता नजर आता है।
जहां तक पुलिसवालों का सवाल है, वे अपने कागजों में किसी अच्छे खां को भी ‘थे’ में नहीं डालते। आदमी उनके हत्थे चढ़ा कि कागज पर ‘था’ ही बचा रहता है। तभी ऊपर पुलिस विज्ञप्ति के हवाले से वल्द समेत ‘था’ होता है और उसी दिन जनसभा संबोधित करने पर उसी महामना का समाचार ‘थे’ में प्रकट हो जाता है।
कालांतर में धनबाद की कोयला खदानों ने ‘था’ और ‘थे’ के काफी कन्फ्यूजन साफ कर दिए थे। सूर्यदेव सिंह और रामलखन सिंह यादव के उदाहरण पुराने पड़ चुके हैं। एक मिसाल किंग महेंद्र की थी, जो नामजद राज्यसभा सदस्य के रूप में देश की नौकरी में लाए गए। कई लोग तब भी कई दिनों तक उन्हें ‘था’ से ‘थे’ में बदलने को तैयार नहीं थे।
भाषा और व्याकरण कोई बाथरूम तो नहीं जिसकी सीमाएं हर एक के लिए सिर्फ कपड़े उतारने पर खत्म हो जाती हों। और यों आदर की ही बात हो तो खंडवा के लोग गालियां भी ‘आप’ कहकर देते हैं और लखनऊ के लोग नजाकत और इज्जत उतारने के बीच इतना कम फासला रखते हैं कि अगले को इज्जत बढ़ती नजर आए। लेकिन यह जो ‘था’ और ‘थे’ है, यह थोड़ा राष्ट्रीय मामला है।
नब्बे प्रतिशत लोग बातचीत में जिन लोगों के लिए ‘था’ इस्तेमाल करते हैं, न जाने क्यों छपते वक्त उनके साथ ‘थे’ लगता है। कहते हैं कि इन ‘थे’ वालों को यदि यह सच्चाई पता लग जाए तो, राजनीतिक पार्टियांे के खैरख्वाह और रसूख वाले तमाम ऊंचे लोगों को दिल के दौरे पड़ जाएं। वैसे यह फैलाया हुआ झूठ है, जैसे यह भी कि अखबार में ‘थे’ छप जाने भर से, सब पढ़ने वालों के मन में उस आदमी के प्रति ‘थे’ छप जाता है।
जानवरों के यहां बड़ा साफ-सुथरा काम है। चूहा मरा, लकड़बग्घा मरा तो भी ‘था’ ही होगा और शेर (निश्चित ही शेर जी नहीं) मरे तो भी ‘था’। सवाल यह नहीं है कि जानवरों को पुकारने की भाषा भी हमने ही ईजाद की है, सवाल यह है कि जब हमारे यहा भी जंगलराज चल रहा है, तो ‘थे’ और ‘था’ का इतना कन्फ्यूजन क्यों है?
अब भ्रम तो रख छोड़ा है। इसलिए चुनाव भी होते रहे हैं। आप जिन्हें ‘था’ से निपटाते आए हैं, वे चुनाव लड़ लेते हैं। कई सारे ‘था’, रिजल्ट आते ही ‘थे’ हो जाते हैं। हम भाषा के बाथरूम में खड़े इंतजार कर रहे हैं कि शायद कोई राजनेता समूचे देश को ‘था’ और ‘थे’ के झंझट से ही मुक्त कर दे।हमारे एक साथी ने नैतिक संकट का प्रश्न उठाया है। वे समाचार लिख रहे होते हैं, तो आजकल उन्हें यह संकट बुरी तरह घेर लेता है। इतने सारे ऊंचे और आदरणीय लोग जेल जा रहे हैं या जेल जाकर लौटते ही लंबे इंटरव्यू ठोक रहे हैं कि उन्हें समझ नहीं आ रहा है कि ‘थे’ लिखें या ‘था’।
व्याकरण कहता है, जब किसी आदरणीय के बारे में वाक्य रचना करनी होती है, तो ‘थे’ लिखेंगे और समाजकंटक या उम्र में छोटे को ‘था’ लिखा जाएगा।
अब विंदु दारासिंह जेल गया ‘था’ या ‘गए थे?’ संजय दत्त आर्थर रोड से यरवदा जेल ले जाए ‘गए थे’ या ले जाया ‘गया था’?
संकट काफी बढ़ रहा है। बहुत साल पहले एक अखबार में खबर छपी कि ‘कश्मीरी हीरो’ अमानुल्ला खां गिरफ्तार कर लिए गए। वे एक सम्मेलन में भाग लेने यहां आए हुए ‘थे’। एक पाठक ने मुझसे पूछा, एक दिन पहले जो खबर छपी थी, उसमें अमानुल्ला के लिए ‘थे’ नहीं, ‘था’ इस्तेमाल किया गया था।
एक अन्य मामले में भी यही उत्सुकता उन्होंने उठाई थी, जब उसमें संजय दत्त के टाडा में बंद करने के वक्त ‘था’ और जमानत-रिहाई के वक्त ‘थे’ दिखा था। हाजी मस्तान से जुड़ी खबरों में थोड़े दिन यही गफलत मची रही कि ‘था’ लिखें या ‘थे’? फिर दो-चार चुनावों के बाद तय हो गया कि उनके साथ ‘थे’ ही लगेगा।
दाऊद के बारे में भ्रम नहीं है और हर आदमी ‘था’ चलाता रहा है, लेकिन हवाला कांड वालों के बारे में कभी ‘था’, कभी ‘थे’ का खेल जारी रखा गया। अनुमान है कि कभी-कभी संवाददाता भ्रमित हो जाते हैं या आंदोलित हो जाते हैं कि गणमान्य और अभियुक्त की हैसियत का समीकरण क्या है, इसलिए शीर्षक में ‘था’, लीड में ‘थे’ और भीतर के मैटर में कहीं ‘था’ या कहीं ‘थे’ होता नजर आता है।
जहां तक पुलिसवालों का सवाल है, वे अपने कागजों में किसी अच्छे खां को भी ‘थे’ में नहीं डालते। आदमी उनके हत्थे चढ़ा कि कागज पर ‘था’ ही बचा रहता है। तभी ऊपर पुलिस विज्ञप्ति के हवाले से वल्द समेत ‘था’ होता है और उसी दिन जनसभा संबोधित करने पर उसी महामना का समाचार ‘थे’ में प्रकट हो जाता है।
कालांतर में धनबाद की कोयला खदानों ने ‘था’ और ‘थे’ के काफी कन्फ्यूजन साफ कर दिए थे। सूर्यदेव सिंह और रामलखन सिंह यादव के उदाहरण पुराने पड़ चुके हैं। एक मिसाल किंग महेंद्र की थी, जो नामजद राज्यसभा सदस्य के रूप में देश की नौकरी में लाए गए। कई लोग तब भी कई दिनों तक उन्हें ‘था’ से ‘थे’ में बदलने को तैयार नहीं थे।
भाषा और व्याकरण कोई बाथरूम तो नहीं जिसकी सीमाएं हर एक के लिए सिर्फ कपड़े उतारने पर खत्म हो जाती हों। और यों आदर की ही बात हो तो खंडवा के लोग गालियां भी ‘आप’ कहकर देते हैं और लखनऊ के लोग नजाकत और इज्जत उतारने के बीच इतना कम फासला रखते हैं कि अगले को इज्जत बढ़ती नजर आए। लेकिन यह जो ‘था’ और ‘थे’ है, यह थोड़ा राष्ट्रीय मामला है।
नब्बे प्रतिशत लोग बातचीत में जिन लोगों के लिए ‘था’ इस्तेमाल करते हैं, न जाने क्यों छपते वक्त उनके साथ ‘थे’ लगता है। कहते हैं कि इन ‘थे’ वालों को यदि यह सच्चाई पता लग जाए तो, राजनीतिक पार्टियांे के खैरख्वाह और रसूख वाले तमाम ऊंचे लोगों को दिल के दौरे पड़ जाएं। वैसे यह फैलाया हुआ झूठ है, जैसे यह भी कि अखबार में ‘थे’ छप जाने भर से, सब पढ़ने वालों के मन में उस आदमी के प्रति ‘थे’ छप जाता है।
जानवरों के यहां बड़ा साफ-सुथरा काम है। चूहा मरा, लकड़बग्घा मरा तो भी ‘था’ ही होगा और शेर (निश्चित ही शेर जी नहीं) मरे तो भी ‘था’। सवाल यह नहीं है कि जानवरों को पुकारने की भाषा भी हमने ही ईजाद की है, सवाल यह है कि जब हमारे यहा भी जंगलराज चल रहा है, तो ‘थे’ और ‘था’ का इतना कन्फ्यूजन क्यों है?
अब भ्रम तो रख छोड़ा है। इसलिए चुनाव भी होते रहे हैं। आप जिन्हें ‘था’ से निपटाते आए हैं, वे चुनाव लड़ लेते हैं। कई सारे ‘था’, रिजल्ट आते ही ‘थे’ हो जाते हैं। हम भाषा के बाथरूम में खड़े इंतजार कर रहे हैं कि शायद कोई राजनेता समूचे देश को ‘था’ और ‘थे’ के झंझट से ही मुक्त कर दे।
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