हमारे सुन्न पैर बर्फ में धंसे हैं, खबर का चाकू तलुए में लगा है, तंत्रिकाएं गुम हैं। उनके पास जाइए, आपको लगेगा कि वाह, क्या गजब मौत है! स्टीकर लिए बैठे हैं, मरने वाले का स्टेटस सेट कर देंगे।
...तो इन दिनों मौत इफरात में है। 'लो' ऑक्सीजन,'नो' बेड, खाली सिलिंडर, खराब वेंटिलेटर, उद्दाम फंगस आदि से लैस कोरोना उस पिए हुए बिगड़ैल लड़के की तरह एक्सीलेटर पर पैर दबाए चला जा रहा है, जिसे हर शै हसीन लगती है। ट्रैफिक फेल है, अफरातफरी है, गाड़ी अभी किसी पर, कभी किसी पर चढ़ती चली जा रही है। कुछ लोग बस इस इंतजाम में लगे हैं कि किस कानून से ये बताया जाएगा कि कार में वह लड़का था ही नहीं, जिसने इतने सारे रौंद डाले। कुछ दूसरे भी हैं। वे ज्यादा ही पहुंचे हुए लोग हैं। वे फुटपाथ की साइज से मरने वालों की संख्या का गुणा करके विचारधारा का क्षेत्रफल निकाल रहे हैं।
इस मौत के अनगिन उपयोग हैं। कुछ मरने वाले महज संख्या हैं, कुछ छोटी तस्वीर हैं, कुछ फोटो शॉप किए हुए, कुछ नई क्रांति की फ्रेम में जड़े हुए। कुछ फेहरिस्त में सिमटे हैं, कुछ सुर्खी में। कुछ बार-बार धोए, सुखाए, पहने और लहराए जाते हैं।
किसी किसी मौत को सुखाकर रख भी लिया जाता है, ताकि आड़े वक्त में गला कर, उबाल कर नए सिरे से काम में लिया जा सके। मौत रोजगार है, उनकी आंखें देखते ही चमक उठती हैं-लो एक और मरा! इधर मरा, उधर ट्वीट बनकर ये जी उठे, फेसबुक पोस्ट में नाचे, क्लब हाउस में बहसते हुए इंस्टाग्राम पर रील बन गए। उनकी चिंता है कि कल को मौत का अकाल पड़ जाए, तो उनका काम कैसे चलेगा? आड़े वक्त के लिए दो-चार मौतें रेगिस्तान की फलियों की तरह डब्बों में 'प्रिजर्व' करके भी रख लेना चाहिए। जिनकी जिंदगी ही मौत पर खड़ी हो, आप उनका दाना-पानी कैसे छीन सकते हैं?
हमारे लिए बड़ा उदास मौसम है। पर वे उदासी का जादू जानते हैं। वे बढ़िया हर्बल काढ़ा पीकर नैचुरोपैथी पर लंबी श्रद्धांजलि देने बैठ जाते हैं। कहीं से आया फोन नंबर वे बिना देखे ऑक्सीजन के नाम से फॉरवर्ड करते हैं, वहां कोई लुटेरा मिल सकता है, मगर उस फॉरवर्ड का लंबा जिक्र भगवतीचरण वर्मा के उपन्यास की शकल में ऐसा खींचते हैं कि ऑक्सीजन क्षमा मांग ले।
हमारे सुन्न पैर बर्फ में धंसे हैं, खबर का चाकू तलुए में लगा है, तंत्रिकाएं गुम हैं। उनके पास जाइए, आपको लगेगा कि वाह, क्या गजब मौत है! स्टीकर लिए बैठे हैं, मरने वाले का स्टेटस सेट कर देंगे। गुरुदत्त की फिल्म में जो सीन घंटों सोचकर लिखा जाता था, ये ताजा-ताजा मौत पर इस तरह लिखते हैं कि मरने वाले के सर और इनकी गोद में कोई फर्क न था। जब वह दुनिया से जा रहा था, तो शेक्सपियर से लेकर तुलसी और पाब्लो नेरुदा के डायलॉग बोलकर ही गया।
उदासी इनके मसालदान का एक हिस्सा है, निकाला और एक श्रद्धांजलि बघार दी।
दुःख उनके लिए माल है, श्रद्धांजलियां उनके डिपार्टमेंटल स्टोर का सबसे चमकीला कोना। मौत मढ़ना और मौत गढ़ना उनकी आर्ट गैलरी का सबसे मोहक योगदान है। कभी कभी उनको डर लगता है कि वे गए, तो कौन हमारे बारे में कितना छापेगा, कितने लाइक होंगे, कौन से फोटो चलेंगे, किन-किन पर शक है कि वो मरने के बाद 'नमन' भी न लिखेंगे। एक बार मैंने उन्हें अमृतलाल नगर की ये पंक्ति सुनाई- 'जो इच्छाएं मैं पूरी न कर सका या कर सकूंगा, उनके लिए भावुकता भरा पश्चाताप करके अपनी मनः शक्ति की चक्की पर गेहूं के साथ कंकड़ क्यों पीसूं?' तो उन्होंने कहा, बोरी भरी दिखना चाहिए। ये कौन पूछता है कि भीतर गेहूं हैं या कंकड़?
इसी हफ्ते कुछ लोगों के जाने से मैं अनमना था, उनका फोन आया। तीन-चार जाने वालों के सोशल मीडिया विश्लेषण के बाद उन्होंने बहुत भाव-विभोर होकर पूछा, आपकी तबियत अभी ठीक है?
मैंने हरिशंकर परसाई का यह नोट उन्हें सुनाया -
'मेरे दुश्मनो, मैं जानता हूं कि तुम एक अरसे से मेरी मृत्यु का शुभ समाचार सुनने को लालायित हो, पर मैं तुम्हें निराश कर रहा हूं। इंतजार करो। और मेरे दोस्तो, रोने की जल्दी मत करो। अभी मेहनत से रोने की तैयारी करो। जब मैं सचमुच प्राण-त्याग करूंगा, तब इस बात की आशंका है कि झूठे रोने वाले -सच्चे रोने वालों से बाजी मार ले जाएंगे। तुम अभी से प्रभावकारी ढंग से रोने का अभ्यास करो। एक योजना बनाकर रोने का रिहर्सल करो। जब तुम कह दोगे कि तुम्हारी तैयारी पूरी है, तब मैं फौरन मर जाऊंगा।'
वैसे भी-
ग़ालिबे खस्ता के बगैर कौन से काम बंद हैं
रोइये जार-जार क्यों,कीजिये हाय-हाय क्यों
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