समझदार बंदरों के साथ सबसे बड़ी मुसीबत है कि उन्हें आदमी समझ लिया जाता है। उनसे उम्मीद की जाती है कि वे आदमियों की बनाई जिंदगी के हिस्से बनें और जब-जब जरूरत हो, बंदर भी बने रहें। चूंकि बंदर इंसानी अदालतें नहीं चलाते इसलिए उनके यहां कॉपीराइट, तलाक, धोखाधड़ी आदि-आदि के मामले में भी कोई प्रावधान लिखित रूप से उपलब्ध नहीं हैं। समस्या तब और बड़ी हो जाती है जब आदमी,जिनकी अपनी अदालतें और लंबे-चौड़े कानून हैं, बंदरों को अपने बीच घसीट लेते हैं। बंदर को पता नहीं होता और आदमी उनके नाम पर मुकदमे लड़ लेते हैं, जीत और हार जाते हैं, मशहूर भी हो जाते हैं।
अभी जब सुलावेसी-इंडोनेशिया के एक बंदर के साथ यह गुजरी तो बंदरों के बीच उसकी चाहे जो प्रतिक्रिया रही हो, आदमियों की नीयत जरा और खुल गई। कोई तीन साल पहले एक सुंदर बंदर ने एक मशहूर फोटोग्राफर का कैमरा छीन लिया और खुद की तस्वीरें खींच लीं। खुद की तस्वीर जब खुद खींची जाए तो आजकल के मोबाइल जमाने में उसे ‘सेल्फी’ कहते हैं। इनमें से एक सेल्फी एक वेबसाइट ने चिपका दी। फोटोग्राफर ने मुकदमा लगाया कि सेल्फी पर उसका कॉपीराइट है। वेबसाइट ने कहा, जब खींची खुद बंदर ने थी, तो कॉपीराइट पब्लिक का हुआ। बहरहाल फैसला हुआ कि चूंकि यह तस्वीर, ‘मानसिक रचनात्मक प्रक्रिया से उद्भूत कला कर्म का परिणाम नहीं थी’ इस पर कॉपीराइट का कोई मामला नहीं बनाया जा सकता। पब्लिक उसका फ्री मजा लूट सकती है।
बंदर यदि आदमी होता तो स्तब्ध हो जाता।
यह ठीक है कि आदमी ने तकनीकी आविष्कारों के खेल से तस्वीर खींचने का डिब्बा ईजाद कर लिया लेकिन इससे यह कैसे साबित होता है कि उस डिब्बे का इस्तेमाल बंदर अपनी कलात्मकता और सौंदर्यबोध से नहीं कर रहा था? बंदर की मानसिक रचना प्रक्रिया, बौद्धिक निर्णय की आकांक्षा और उससे उत्पन्न कला कर्म, आदमी के बनाए तकनीकी डिब्बे के इस्तेमाल के बाद भी उसके क्यों नहीं रह जाते? बंदरों की अदालतें किस पब्लिक पर यह मुकदमा चलाएं कि क्यों सेल्फी तक उनकी नहीं है, वह या तो कैमरा मालिक की है या पब्लिक की!
कवि कविताएं लिखते हैं। पेड़-पत्तियां, पड़ोसी, लड़कियां, सरकार सबका कॉपीराइट उसकी कविता के खेल में होता है। कहानीकार कहानियां लिखते हैं – रिश्ते, जीवन, रेल, सड़क, विश्वास, हृदय वगैरह, पब्लिक से उठाकर खेल करते हैं। यहां तक कि आदमियों की दुनिया में आइडिया का भी कॉपीराइट होता है। चूंकि कॉपीराइट, मौलिकता के आधार पर धन से वास्ता रखता है, इसलिए एक ऐसा समय आने की संभावना है कि कैटरीना कैफ की छींक का कॉपीराइट भी बड़ा मसला होगा। चूंकि हर आदमी अद्वितीय है, इसलिए उसकी वसूली अद्वितीयता के इंसानी खेल के हिसाब से होगी। लेकिन इंसानों की नजर में बंदर की ‘सेल्फी’ एक दुर्घटना है। इंसानी दुनिया में दुर्घटनाओं के, वह भी बंदरों के हाथ लगी चीजों से उत्पन्न दुर्घटनाओं के, कॉपीराइट नहीं होते, चाहे वे अपने परिणाम में कितनी ही कलात्मक क्यों न हो। यह कला कर्म के क्षेत्र में उतरने को उत्सुक बंदरों के लिए विकट चुनौती है।
बंदर के हाथ में उस्तरा जब आया होगा तो आदमी बहुत डरा होगा। बाद में उसने उसका मुहावरा बना दिया। यहां तक कि बंदर को अदरक के स्वाद से अनभिज्ञ रहने की अफवाह भी इस तरह चलाई कि वह स्थापित हो गई। बंदरों ने कभी अदरक पर अपने शोधपत्र जारी नहीं किए, न ही उस्तरों का इस्तेमाल खुद की शेविंग के लिए किया लेकिन आदमी का डर देखिए कि उसने उनके ऊपर तैयार किए मुहावरे तक अपने मौलिक खाते में डाल दिए। बंदर के नाच पर कॉपीराइट मदारी का है और करीना-कैटरीना की छींक पर कॉपीराइट एलर्जी उत्पन्न करने वाले तत्वों की बजाय उनका खुद का है। यह कला पर इंसानी चालाकी की इंतिहा प्रतीत होती है। कुछ लोगों का मानना है कि सेल्फी की नीलामी होती जो ज्यादा मानवीय होता। जो खरीदता उसे कॉपीराइट दे दिया जाता, उससे जो पैसे आते वे बंदर पर खर्च कर दिए जाते।
बंदर से इस पर किसी ने राय लेने की कोशिश नहीं की। असल बात यह है कि पूरे केस में बंदर कोई पार्टी ही नहीं है। अपनी वानरीय सहजता से उसने सेल्फी ली थी। अब इंसानी चालाकी से उस सेल्फी पर आदमियों में अधिकार की बहस हो रही है।
एक सहजता और एक चालाकी के बीच यह आकर्षक युद्ध है। एक सरल, निश्छल प्रकृति और एक सैद्धांतिक कलाबाजी के बीच रस्साखेंच है। एक फक्कड़ मनमौजी के स्वत:स्फूर्त कलाकर्म के विरुद्ध संसाधनों के चालू मालिकों के बीच हद दर्जे की गैर-वानरीय हिंसा है।
आदमियों की दुनिया में जानवरों के कलाकर्म का धंधा खोज लिया है, लेकिन धंधों की बारीकी जानवरों की दुनिया तक नहीं पहुंची है। जहां तक विश्वास किया जाता है, अपने में मस्त वानर संसार में सेल्फी का कॉपीराइट कोई विषय नहीं है।
क्या यह बात, यह साबित करने के लिए काफी नहीं है कि भावनाओं के मामले में बंदर बिरादरी धंधेबाज आदमियों से सदियों आगे है? सुलावेसी के बंदर को भरोसा है कि डार्विन के प्रेमी सुन रहे हैं!
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