कोई व्यक्ति जाता है, तो अपने साथ एक समूचा संसार नहीं ले जाता। वह फिर-फिर अपनी परछाइयों और संवेदनाओं के साथ अपने संसार में लौटता है। उसके अनुभवों का विस्तार, उसकी अनुभूतियों के अनुप्रभाव, उसके किए का अनकिया और अनकिए का अनकहा सब यहीं रहते हैं। दरअसल, वह यहीं रहता है और हम उसे जाने नहीं देते।
संपादकों को उकसाने की भी एक गजब परंपरा है। भारती जी, सर्वेश्वर जी, कमलेश्वर जी, शरद जी…. नाम लीजिए और कुछ निकल आएगा। राजेंद्र जी का जलवा यह था कि वे विमर्श की गाथा को ‘पूर्वजन्म का रहस्य’ शैली के एंकर का रंग देते हुए आपको उसका पात्र बना डालते थे। इस मोहमाया में अनेक मारे गए। कई ‘आत्म-तर्पण’ और ‘आत्म-स्वीकार’ इसके साक्षी हैं। कभी-कभी जिनकी कहानियां दर्जे की नहीं लगीं, उन्हें उन्होंने भीतर के दमित कबाड़ को टटोलने का धक्का दिया और वे महापुरुष शुरू हो गए। यह मजमे की कला भी थी और हल्ले की भी। इसे साधने का भी साहस चाहिए। राजेंद्र यादव के पास यह कला थी, इसीलिए कई ऐसी कथाएं चल पड़ीं, जिनसे पता चलता है कि जैसे वे दमित कुंठाओं और अंधेरे कोनों को सुनहरा प्लेटफार्म बनाने की अभियांत्रिकी के हीरो हो गए थे।
एक अंग्रेजी मुहावरा है, जिसे हिंदी उल्था किया जाए जाए, तो लगभग मतलब यह निकलेगा- अपने गंदे कपड़े बीच चौराहे पर धोना! इस मुहावरे को उन्होंने इस्तेमाल नहीं किया, लेकिन उनके साहस और तेज से चौंधियाए लोगों ने यथावत् करना शुरू कर दिया। यह संभवतः विरेचन की प्रक्रिया रही होगी, जिससे वे लोग निर्मल हो गए।
संयोग है कि जब हंस के शुरुआती दिनों में ‘हुजूर दरबार’ कॉलम में मेरा आलेख उन्होंने छापा, तो शीर्षक था, आडवाणी की जेब कटी, मेरी क्यों नहीं कटी? और पिछले दिनों उन्होंने मुझे फिर कॉलम लिखन को कहा और अंतिम आलेख छापा, कॉमरेड आडवाणी और राजमे के बीज।� राजनीति और साहित्य के बीच ढाई दशक का यह समान सूत्र-कुछ ऐसा प्रतीत होता है, जैसे उन्होंने एक लंबी डाक्यूमेंटरी बनाई और फीचर फिल्मों में उसे घटित होते देखने का आनंद लेते हुए निकल लिए।
स्त्री-विमर्श और दलित-विमर्श के जगजाहिर अवदान की बात आचार्य प्रवर करेंगे। मगर अपना जहां तक सवाल है, मेरा उनसे कम उम्र के बावजूद एक किस्म का ‘तलवार भाव’ वाला रिश्ता था। उनकी आखिरी कहानी 'हासिल' का मैं दुश्मन था और बे-भाव सेक्स दर्शन को विमर्श न कहने पर तुला रहता था। वे पवित्रतावाद संबंधी गाली उच्चारते थे और अपने किए पर टिके रहते थे।
विवाद में उछलने से हुए नामों की फेहरिस्त किसी और दिन बनेगी, मगर दुश्मनों से भी बात का मजा वही ले सकते थे। सुधीश पचौरी का ‘ताऊ’ मुहावरा हो या निर्मल वर्मा की सुंदरतम कहानी-सब वहां थे। यहां तक कि उत्तराखंड के मुख्यमंत्री रहे एक राजनेता की कहानी उन्होंने छापी, तो ‘वैचारिक’ और ‘कलात्मकता’ के तीर लेकर बहुत से उन पर दौड़े। अज्ञात या ज्ञात स्नोवा बार्नो प्रकरण भी उनके खाते में आया। पर वे अड़े रहे। तेज संपादकीय लिखे, आखिरी दम तक हल्ला-गुल्ला बनाए रखा और प्रासंगिकता को हाथ से न जाने देने की शैली का आनंद उठाया।
मोहन राकेश, कमलेश्वर और राजेंद्र यादव का सब साथ नाम लेते हैं। कमलेश्वर की आधारशिलाओं में राजेंद्र यादव का टूथपेस्ट पर भी ताला लगा देने का दर्शन जब प्रकट हुआ, तो हम युवा हतप्रभ थे। कमलेश्वर तो अखबार, टीवी सब जगह थे, उनकी कलाएं अलग थीं, राजेंद्र यादव की लीलाएं अलग! जब कमलेश्वर गए, तो उन्होंने दोस्त को याद करने के साथ-साथ अपने अंदाज में चिंता जताई- ‘मुझे फिक्र यह हो रही है कि उनके बाद उनके चेलों का क्या होगा?’ राजेंद्र यादव के जाने के बाद उनकी तिकड़ी का कोई प्यारा सदस्य अब ऐसा आत्मीय उलाहना देने के लिए नहीं है।
यह लीला है।
लीलाएं तो फिर भी चलती रहेंगी और हिंदी साहित्य का कारोबार भी, लेकिन हर लड़ाई में हाथ डालते क्या वे नजर नहीं आएंगे?
हिसाब हिंदी साहित्य के राजस्व निरीक्षक करेंगे।
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