तरुण तेजपाल के तहलके का प्रतीक चिन्ह है-कौआ। इसके पीछे निहित संदर्भ यह है कि झूठ बोलने वाले को कौआ काटता है। हिंदी फिल्मों तक में नायिका जब नायक को डराती है तो कहती है कि झूठ बोलोगे तो कौआ काट खाएगा। आज हम कौआ-कोयल की कहानी में नहीं जा रहे, न श्राद्ध के समय के पूर्वज-स्मृति क्षण को दोहराना चाह रहे हैं, लेकिन तरुण के बहाने उस प्रतिभाशाली शक्तिसंपन्न सामाजिक हिस्से की कारीगरी पर टॉर्च डालने का इरादा तो बना ही सकते हैं, जो वस्तुत: हमारे सामाजिक विचारों और गतिविधियों को नियंत्रित करता है।
तरुण तेजपाल क्या हैं? आजाद और निडर प्रेस के पुरोधा। तरुण तेजपाल क्या हैं? रॉबर्ट डी नीरो से लेकर खुशवंत सिंह तक की चमक लगाए हुए वैचारिक शक्ति स्तंभ। तरुण तेजपाल क्या हैं? राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय ‘विचार उत्सव’ गोवा-मॉडल के प्रवर्तक .
दिलचस्प यह है कि उन्हीं तरुण तेजपाल के बहाने स्त्री-विमर्श और नैतिक मूल्यों की प्रतिमूर्ति की पड़ताल हो रही है। वे व्यापारी भी जो संचार की दुनिया में काला-पीला माल डालकर पत्रकारों को भाड़े पर लेने वाले विकट सफल संचालक भी हैं और जो हर संभव मीडिया के प्रभाव का बाजार खड़ा करते हैं या उसका दोहन करते हैं, जमकर पत्रकारिक नैतिकता के पतन पर चर्चा हेतु क्रांतिवीर बनकर प्रस्तुत हैं।
इससे भी दिलचस्प है, राजनीतिक दलों के नेताओं की तू तू-मैं मैं। यह स्वीकार करने में ही तकलीफ हो रही है कि तरुण के धंधे में किसका कितना पैसा लगा है। कौन-सी पार्टी अपनी सुविधा के लिए नैतिक ‘स्टिंग’ को ज्यादा जहरीला बनाने और उसकी ‘टाइमिंग’ तय करने की व्यवस्था करती रही है। यह क्या बात है कि सांप्रदायिकता विरोध और नैतिकता एक पार्टी का ही ठेका है और दूसरी का काम सिर्फ इस तथ्य की याद दिलाना ही है?
अपने लिए कॉरपोरेट और राजनीतिक शक्तियों को संयोजित करने की शक्ति कोई कैसे हासिल करता है? क्या इनके बिना विचारों का कोई उत्सव संभव नहीं है? और यदि, ऐसा विचारों का उत्सव मंच से लेकर होटल की लिफ्ट तक वस्तुकरण से ही संपूर्ण होता है, तो विचारों के बाजार की नैतिकता का पैमाना ही क्यों नहीं तोड़ दिया जाना चाहिए?
एक दैहिक संदर्भ, सुरा-दावत और लकदक-चमक-दमक फिल्मी किस्म के उत्तम दृश्य की रचना करते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि विचारों का उत्सव मनाने वाले अन्य क्षेत्रों में कुछ भी संपन्न करें, इस संदर्भ में सावधान रहें तो सब कुछ सधा हुआ पाएंगे। किंतु ध्यान दें कि दक्षिण दिल्ली की ताकतवर शामें सिर्फ स्त्री-विमर्श की सीमाएं तय करने के लिए ही नहीं घटित होतीं। यदि वे हमारे राष्ट्रीय नीति-नियंताओं की कार्य-प्रविधि को नाटकीय प्रस्तुति में बदलने में सक्षम न होतीं, तो हम टूजी-थ्रीजी-सीजी वगैरह में आकंठ स्नान कर रहे लोगों को नैतिकता के तौलिए बेचने में सफल होते नहीं देख रहे होते।
यह समय मुद्राओं का है। मुद्रा यानी पैसा, मुद्रा यानी भंगिमा, मुद्रा यानी पैसे से उत्तम भंगिमाओं का बाजार बनाने की आधारभूत शक्ति। इसीलिए क्षणभर में मूर्तिभंजन हो जाता है। क्षणभर में मूर्ति निर्माण हो जाता है। आप इस मुद्रा के विशेषज्ञों से गुड़हल के पौधे में सूरजमुखी का फूल दिखा सकते हैं और आम के पेड़ पर बबूल के कांटों को स्थापित कर सकते हैं। विचारों के उत्सव इसी प्रकार संपन्न होते हैं। ब्रांड बनते हैं, पैमाने बदलते हैं और अनुकूल न होने पर दूसरे ब्रांड से उसे चूर-चूर कर देते हैं। इसे आप ‘ओपिनियन फॉर्म’ करने वाले विशिष्ट जनों का अवदान कहकर नतमस्तक होते रहते हैं।
यह मालूम होते हुए भी कुछ क्रांतिकर्मी नौकरी से बाहर हो जाने के बाद ही यह जबर्दस्त क्रांतिकारी बयान कैसे देते हैं कि जहां वे गए थे वह प्रतिक्रियावादी, क्रांतिरोधी विचारों का अड्डा है? सरकारी पिछले दरवाजों से ‘यह’ और ‘वह’ काम संपन्न कराने के बाद ही, उन्हें कैसे ऐलान करने की याद आती है कि यहां ‘वह’ काम निहायत पतनशील योद्धाओं की मंडली करती है और समाज को इससे सावधान रहना चाहिए?
दरअसल प्रख्यात नीरा राडिया प्रकरण इस संदर्भ में एक सुंदर मॉडल’ है। इसमें मंत्री बनवाने, मीडिया धुरंधरों के राजनीतिक संपर्कों का लाभ उठाने से लेकर व्यापारियों तक के हितों का अद्भुत ऑपेरा प्रस्तुत होता है। उल्लेखनीय है कि राडिया की कंपनी का काम ही प्रचार-प्रसार और संपर्क सूत्र बनाना था। यह कहीं भी छुपा हुआ तथ्य नहीं था और बाकायदा उसके अनुबंध इन्हीं कार्यों के लिए किए गए थे। जो रास्ते इसके लिए बनाए गए उसमें पुराने ब्यूरोक्रेट, धाकड़ पत्रकार और ऊंची कंपनियों के सिरे मिला देने की कला प्रयुक्त हुई थी। क्यों सिर्फ ये तीन सिरे मिला देने से दिल्ली के राजनीतिक स्टॉक मार्केट में वारे-न्यारे हो जाते हैं? तमाम बौद्धिकताओं के ब्रांड बन जाते हैं? जंतर-मंतर, रामलीला मैदान, जनपथ-राजपथ उलट-पलट हो जाते हैं। कवि-कलाकार-नेता, कविताएं लिखते हैं, नाटक करते हैं, मुद्राएं अपनाते हैं और शौकिया तौर पर पुरस्कार-पोस्टिंग-ब्रांडिंग मंडी में लाठियां चलाने चले जाते हैं? यह अद्भुत है कि तर्क की मुद्रा का मोल आसमान छू रहा है। बारिश से घर जलते हैं और विमर्श में धंधे फलते हैं। इन सभी कथाओं के पात्र वही हैं। ये नैतिकताओं के ‘बुलेट राजा’ हैं। अपनी सुविधा-असुविधा से काले, सफेद या धूसर हो जाते हैं। ये श्रद्धांजलि सभाओं से लेकर जिम या जिमखाने तक समान रूप से उपस्थित हैं।
साहित्य, पत्रकारिता, राजनीति-सबके आसाराम होंगे लेकिन, कहें तो कि उनका व्यवसाय आसाराम का है। नहीं, उसमें वे विमर्श पैदा करेंगे। वे विमर्श का उत्सव चलाएंगे। विमर्श पर हम लोगों से नैतिक मुद्रा में चीखते हुए निजता का क्रांति-भाव निकलवाएंगे। कहेंगे, ‘चलिए देश बचाना है। विमर्श में उतरो’।
जेसिका लाल से लेकर तरुण तेजपाल तक, निरीह और शक्तिशाली तक, विचारों के इस युद्धोन्मादी उत्सव के पात्र, ले-देकर उन्हीं दीवानखानों से घूमते-निकलते आते हैं। तो डराने वाला सवाल यह है कि क्या शराब माफिया, भू-माफिया, राजनीतिक माफिया को अलग करना मीडिया माफिया से ही संभव हो सकता है? शायद नहीं। क्योंकि, जिनकी सेज के मुरझाए फूलों का भी ब्रांड बनता है, नैतिकता की सूलियां भी उनके ही कारखानों के पिछवाड़े बनती हैं।
सेक्स और हत्या के प्रकरणों में बंद लीडरों की मां, पत्नी और भाई चुनावों में तालियां बटोर रहे हैं और आप चाहते हैं कि गोवा की होटल के एक वाकये से राष्ट्रीय नैतिकता के मानक तय हो जाएं? यह कैसे संभव हो सकता है जब हर विचार उत्सव अंतत: सत्ता के विमर्श का उत्सव है।
जब विचारों के उत्सव की मुंडेर पर झूठ के कौए नए विमर्श की ब्रांड बना रहे हों, तब मुहावरों के भरोसे नहीं रहा जा सकता। सत्ता की धुरी जिनकी संधियों से संचालित हो, वे तो सिर्फ कहानी बेच रहे हैं। इन कहानियों से विमर्श के रस उठाए जाएं या विचार-बाजार में नियंताओं की मुद्राओं के दांव-पेंच, यह तो आप ही तय करेंगे।
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