श्रद्धेय संत प्रवर,
अयोध्या से मैं आपके चरणों में प्रणाम करता हूं। पहला प्रणाम मैंने तब किया था जब आप रथयात्रा लेकर निकले और राम मंदिर तो नहीं बना, लेकिन ढांचा गिराकर लौट आए। फिर लौह पुरुष बनकर गृहमंत्री बनाते वक्त आपको प्रणाम किया। तब भी आपका लोहा पिघलकर दूर-दूर तक बहता ही दिखाई दिया। बाद में एनडीए के शहंशाह और ‘निर्णायक सरकार’ वाली तसवीर के साथ आपके पोस्टर देखकर प्रणाम किया। मगर, मेरे हाथ फूल लिए हुए, ज्यों के त्यों इंतजार करते रह गए।
इस बार का प्रणाम इसलिए है कि आप परमसंत दिखाई दे रहे हैं। ऐसा संत जो अयोध्या के पानी में पटना की धर्मनिरपेक्षता घोलकर राजपथ पर रिसाए हुए खड़ा अपने तेज से समंदर को सुखाने और वनस्पतियों को जलाने के श्लोक पढ़ रहा है।
हे परमसंत; आपके एक शिष्य ने दो दिन पहले ही कहना शुरू किया कि आपके पूर्व शिष्य नरेंद्र मोदी बांटने की राजनीति करते हैं, उन्होंने भाजपा को बांट दिया अब देश को बांट देंगे। मुझे अब तक समझ में नहीं आया कि आपको शांति से अलग उच्चासन देने के कार्यक्रम से पूरी पार्टी के टुकड़े कैसे हो गए? कांग्रेस को देखो, नरसिंह राव ने भी बिना जनपथ सरकार चलाई और जिनकी नहीं चलने दी, वे सोनिया जी का वजन लेकर बाद में सात कदम सूरज की ओर चल पड़े। राव के वक्त शिबू सोरेन फंसे पड़े थे और अब गले का हार बने हैं।
तो, मुनिवर समस्या यह है कि आपके तेज से यदि आपकी देह ही जलने लगे तो लोग कहते हैं कि परम सत्य बहुत ही करीब है।
आप इस समस्या को जानते हैं, क्योंकि आप तो परमज्ञानी हैं, किंतु समस्या की उत्तर समस्या यह है कि आप जिस नदी में स्नान करने उतरते हैं, वही आपके तेज से सूख जाती है। प्यासों को पानी चाहिए। ऐसे तेज का क्या करें, जो पानी को सुखा दे? सारे परमाणु परीक्षण रेगिस्तान या समंदर में ही हुआ करते हैं। सो, आपके परीक्षण स्थल न सरयू में हो सकते हैं, न साबरमती में। आपका वैज्ञानिक तर्कवाद जाग उठा है और सर्वहारा की दुहाई देकर पुराने किए पुण्यों की बलि मांग रहा है। मगर पुण्य और वैज्ञानिक तर्कवाद का पुराना झगड़ा है। सर्वहारा ‘दुहाई’ नहीं ‘दवाई’ देता है। आपके जिन्ना और पटेल के बीच 2014 खड़ा है और आप हैं कि अपने आपको शंकर मानते हुए सामने वाले को भस्मासुर कहते हुए, मुद्रा में मार्क्सवाद और आत्मा में रहस्यवादी हुए जा रहे हैं।
हे रहस्यवादी पुण्यात्मा, ‘थ्रीजी’ और ‘टूजी’ में भी गांधी का ‘जी’ और गुजरात का ‘जी’ छुपा है, इसका क्या यह अन्यार्थ है कि गांधी ही ‘थ्रीजी’, ‘टूजी’ घपलों के प्रेरणा स्रोत हैं? किसी भी सच्चे धर्मनिरपेक्षतावादी से पूछो तो वह कसम खाकर इन्कार कर देगा। जिस तरह ‘जी’ हमेशा ‘गांधी’ का नहीं होता, उसी तरह ‘ए’ हमेशा ‘आडवाणी’ का नहीं होता। आप अपने ‘इन्वेस्टमेंट’ का ‘रिटर्न’ इस बारहखड़ी में कैसे मांगेंगे कि कांग्रेस कहने लगे, 1942 में हमने ही ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन चलाया था और 2014 में हम ही ‘चिपको’ आंदोलन चलाने के अधिकारी हैं।
बलराज मधोक की आत्मा जानती है, संत श्री, कि ‘इन्वेस्टमेंट’ और ‘रिटर्न’ किसे कहते हैं। पब्लिक को अटलजी चाहिए, तो वह आपको ‘डिप्टी’ ही रख सकती है। आपको ‘फिफ्टी-फिफ्टी’ की पार्टनरशिप भी मंजूर नहीं हो तो पब्लिक क्या करे?
और एक बात संत श्री, संतों के धंधे में रिस्क बहुत होता है। इन्वेस्टमेंट और रिटर्न के बीच भक्त-भगवान की दूरी होती है। जरा मार्केट गिरा कि पूंजी स्वाहा हो जाती है। सो, सभी अपने-अपने धंधे को मार्केट देखकर चलाते हैं। नीतीश से लेकर मुलायम तक, सीबीआई से लेकर कोलगेट तक, गुड़गांव की जमीन से लेकर केदारनाथ तक ‘इन्वेस्टमेंट’ और ‘रिटर्न’ की यह ‘संत-क्षमता’ ही अपना परचम फहराती है।
अभी-अभी सुना कि उधर बीजेपी ने मोदी की लीडरशिप मंजूर की और इधर बड़े लोगों के घोटालों के खिलाफ बोलने वाले आईएएस खेमका पर सरकारी जांच बैठ गई।
बधाई हो, प्रणाम हो! हमारे पड़ोस से नारा गूंजा है-आडवाणी जी संघर्ष करो, कांग्रेस आपके साथ है। पर, मैं तो आपके संतत्व को प्रणाम करता रहा हूं, अत: बारंबार कहता हूं कि मुनिवर आप तय करो, राम जी आपके साथ हैं।
जय हो!
आपका सरयू के किनारे चरण पखारने को खड़ा एक भुक्त भोगी भारतीय
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