राजनीति में अंगुलियां डुबोकर उसकी चाशनी को मक्खियों से बचाना अलग कला की मांग करता है। यह कला बिरलों से ही सधती है।
लीला सैमसन ने सेंसर बोर्ड से इस्तीफा दे दिया है। उनके समर्थन में भी इस्तीफे आ गए हैं। हल्ला है कि बात सिद्धांत की है। लीला का कहना है कि हस्तक्षेप, भ्रष्टाचार और दबाव के चलते वहां काम करने का औचित्य नहीं रह गया था।
यह ‘औचित्य’ बड़ी मजेदार चीज है। लीला सैमसन 2011 में नियुक्त की गई थीं। तब यूपीए की सूचना प्रसारण मंत्री से किसी ने पूछा कि इनका फिल्म से क्या लेना-देना है? तो उन्होंने कहा, उनकी योग्यताएं हैं। फिल्म वालों में खोजें तो उन्हें समान क्षेत्र में होने से बहुत से दबाव सहने पड़ते हैं, जिसे लेकर कोई तैयार नहीं होता। परम औचित्य के चलते यूपीए चलती रही, लीला भी चलती रहीं। पिछली मई में उनका कार्यकाल खत्म हो गया था। बोर्ड के सदस्यों का भी हाल वही था। सब नई व्यवस्था तक ‘कार्यकारी’ आधार पर चल रहे थे। लीला सैमसन से एक बार पूछा गया था कि कलाओं के लिए क्या वाकई सेंसर बोर्ड की जरूरत वे महसूस करती हैं, तो उन्होंने कहा था, कला रूपों को आजादी होनी चाहिए लेकिन सामाजिक जिम्मेदारी भी एक जरूरी चीज है। यह ‘सामाजिक जिम्मेदारी’ ही थी जिसके चलते उन्होंने पीके के मामले में सख्ती से कहा था, ‘हम किसी भी दबाव से नहीं झुकेंगे। कोई कट नहीं लगाएंगे। भावनाओं के आहत होने का जहां तक सवाल है, किसी एक की भावनाओं को बचाने से भी किसी दूसरे की भावनाएं आहत होती हैं। हम दोनों को खुश नहीं कर सकते। जिन राजनेताओं को, समूहों को आपत्ति है वे अपने समर्थकों-अनुयायियों से कहें कि वे फिल्म न देखें।’
क्या सादगी है? यही सादगी उन्होंने एमएसजी के मामले में दिखाने से इन्कार कर दिया, क्योंकि ‘यह किसी समूह की भावनाओं को आहत’ कर सकती है।
यहीं सुविधा का खेल शुरू होता है। सेंसर बोर्ड को ‘विचित्र दलीलों’ का ‘सुनियोजित जंगल’ भी कहा जाता है। जहां दलाल और दलील के संघर्ष सुविधा के हिसाब से चलते हैं। एक सीईओ राकेश कुमार की गिरफ्तारी का नजारा आप पहले देख ही चुके हैं और दो-दो साल के लिए, तमाम नौ केंद्रों में नामांकित किए जाने वाले सदस्यों का जलवा भी। मनचाही कैटेगरी का सर्टिफिकेट पाकर पहले से ऐलान की हुई तारीख पर फिल्म रिलीज करने के लिए पूरा जाल बन गया है। अरबों की इंडस्ट्री में एक विवाद, एक महीने की देरी या जरा-सी ऊभ-चूभ बड़ा फटका लगा सकती है। इसलिए धंधे को धंधे के उसूल से सुलटाया जाता है। फिर इसमें क्रांति की गुंजाइश कैसे सामने आती है? सेक्स और सांप्रदायिकता के प्रश्नों की जलेबी इसमें उपयोगी होती है। यही वजह है कि कई संवेदनशील फिल्में फिल्मकारों की जिद से रुकी रहीं, कई घटिया फिल्में बाजार में खेलती-कूदती निकल गईं। चुंबन, बारिश आदि पर बहसों का लंबा खेल चलता रहा है। अब धीरे-धीरे माध्यमों ने समाज को ‘आजाद’ करा दिया है और इमरान हाशमी जैसी ‘किस-किंवदंतियां’ चलती-फिरती नजर आती हैं।
फिर भी, तमाम आपत्तियों-परेशानियों के बावजूद यदि कोई सेंसर बोर्ड से असहमत है तो वह ट्रिब्यूनल में अपील कर सकता है। ट्रिब्यूनल यदि उसे पास कर देता है तो उसे दिखाया जा सकता है। ढेरों फिल्में ट्रिब्यूनल के पास अपना पक्ष लेकर पहुंचती रही हैं और पास होकर दर्शकों तक पहुंचती रही है। तब कोई शोर नहीं था। अब अगर एमएसजी भी ट्रिब्यूनल से पास हुई तो सेंसर बोर्ड की अध्यक्ष को ‘शहादत’ का सिद्धांत कैसे याद आया? पीके की दृढ़ता और एमएसजी की दृढ़ता में शहादत के आनंद का अवसर भिन्न-भिन्न है। एक जगह ‘कुछ नहीं काटेंगे’ और दूसरी जगह ‘दिखाने नहीं देंगे’ का वस्तुसत्य कार्यकाल पूरा होने के महीनों बाद भी उचित समय पर ‘श्रेष्ठ नायकत्व’ के आनंद लूटने का नमूना अधिक प्रतीत होता है। राजनीति में अंगुलियां डुबोकर उसकी चाशनी को मक्खियों से बचाना अलग कला की मांग करता है। यह कला बिरलों से ही सधती है।
पंजाब-हरियाणा की स्थानीय सामाजिक संरचना में सिख समुदाय का आंतरिक तंत्र भिन्न रूप से संवेदनशील है। वहां भी वर्ग हैं और हजारों डेरे उसकी इसी प्रकृति के चलते अस्तित्व में आए हैं। ऐसे ही एक डेरे को गुरमीत राम रहीम संभालते हैं। डेरों-अनुयायियों की अपनी राजनीति है। इसके चलते वर्गों में पारस्परिक विरोध और तनाव का इतिहास है। एमएसजी अपने ट्रेलर में निहायत ही मामूली, धुआंधार स्टंट से भरी एक बी-ग्रेड फिल्म नजर आती है। यदि यह यूं ही प्रदर्शित हो जाती, तो किसी को पता भी नहीं चलता। फिल्म क्राफ्ट या मनोरंजन की दृष्टि से तो इसका निहायत सीमित दायरा होगा। मगर पिछले चुनाव में डेरे ने स्थानीय राजनीति में भाजपा को समर्थन दिया था। पीके के प्रदर्शन योग्य सुधारवाद और एमएसजी के अ-प्रदर्शन योग्य क्रांतिवाद – दोनों का ही खेल, इससे खुल जाता है। सैमसन के लिए यह क्रांति मुफीद हो सकती है। वर्ना समांतर सेंसर बोर्ड का क्या है? कभी शिवसेना से घबराए और खलनायक से पार पाए, मुंबई बम कांड में गुनाहगार संजय दत्त जेल में आते-जाते भी तबियत से कमाई कूट चुके हैं।
इस्तीफा तो लीला संगीत नाटक अकादमी में भी दे चुकी हैं। उनकी असली क्रांति तो ‘कलाक्षेत्र फाउंडेशन’ के दौरान की है। सीएजी ने आर्थिक अनियमितताएं पाईं, उनकी की गई नियुक्तियों पर सवाल खड़े हुए और अंतत: उम्र के प्रश्न पर उन्होंने इस्तीफा दे दिया। हालांकि इसे ‘फासिस्ट ताकतों’ के दबाव पर हुआ इस्तीफा बताया गया। कहना बेकार है कि रुक्मिणी देवी द्वारा प्रवर्तित कलाक्षेत्र में ‘भरतनाट्यम को धर्म-मूर्ति से अलग रखने’ और फाउंडेशन का ‘लोगो’ तक बदल देने से पूरे उपक्रम में उनका विवादों से गहरा रिश्ता कैसे बन गया था? प्रियंका गांधी की नृत्यगुरु होना कोई गुनाह नहीं है, लेकिन जब वैचारिक कुश्तियां, राजनीतिक लाभ के तर्कों के अखाड़ों में चलने लगती हैं, तो सारी जुबानें कैंची हो जाती हैं। अंतत: किसकी कैंची सही, किसकी कैंची गलत – यह महज समर्थकों के हिसाब का खेल रह जाता है। इसलिए कभी यह फासिस्ट ताकतों से संघर्ष का सोपान हो जाता है, कभी अंतरात्मा की आवाज!
और अंत में ‘नामांकन’, ‘कार्यकाल’, ‘विचार’ तथा ‘सरकार’ जैसे शब्दों की बाजीगरी पर कुछ लाइनें। सभी जानते हैं कि अपनी विचारधारा से ताल्लुक रखने वाले व्यक्तियों को ही सरकारें लाभ और अधिकार के पदों पर नामांकित करती हैं। राष्ट्रीय सलाहकार परिषद से लेकर राज्य की अकादमियों तक इसी आधार पर नियुक्तियां होती हैं। इसमें यदि यह तर्क दिया जाए कि ‘सरकार का पैसा, जनता का पैसा है’, तो विचारधारा का कोई झगड़ा नहीं होना चाहिए। लेकिन जब यह तर्क सुविधा के हिसाब से इस्तेमाल किया जाए तो भ्रष्ट, कुनबापरस्त, जातिवादी सरकार से विचारधारा के आधार पर हाथ मिलाना चल जाता है। यही नहीं, पुरानी नजदीकी से नामांकित होने के बाद, यदि नई सरकार की विचारधारा से आपका मेल नहीं है तो आप क्रांति-मुद्रा में अधिकार का प्रश्न खड़ा कर देते हैं। सुविधा का विचार, सुविधा की सरकार – यह मारक अस्त्र, नैतिक तो नहीं ही है, कूटनीतिक अवश्य हो सकता है। उम्मीद की जानी चाहिए कि लीला सैमसन की इस्तीफा-मुद्रा को पूरे आलोक में देखा जाएगा और यह अपनी तार्किक परिणति को प्राप्त होगा।
अब सेंसर बोर्ड और अकादमियों की जरूरत कैसी और कितनी है, इस पर फिर कभी!
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