डाटा की तानाशाही से क्या कोई ‘हैशटैग’ व्यवस्थाओं को तहस-नहस भी कर सकता है? ट्रोल, ब्लॉक, अधिकार और तख्तापलट की उसकी सत्ता होगी। तब किसकी मौज होगी?
सोशल मीडिया की अपनी एक सरकार बन गई है। पिछले दिनों एक महादेश के राष्ट्रपति को इससे निर्वासित कर दिया गया। हमें बताया गया कि इसकी वजह से कुछ जगहों पर अस्थायी किस्म की क्रांतियां भी हुईं और कई जगह पर चुनावों में भी लोकतांत्रिक सत्ता का हिसाब-किताब ‘सोशल मीडिया सरकारों’ के हस्तक्षेप से हुआ। ऐसा लगता है जैसे शोषक और शोषित, अच्छे और बुरे, दोस्त और दुश्मन - दोनों सोशल मीडिया की डेमोक्रेसी के मजे में फल-फूल रहे हैं। वास्तविक राजनीतिक ‘सत्ता’ दोनों पक्षों में एक साझा आकर्षक तत्व है। जिनके पास सत्ता नहीं है, वे सभी शोषित के रूप में एक समूह बना लेते हैं और जिनके पास है, वे उसे नियंत्रित करना चाहते हैं। नतीजा यह है कि झूठ और सच का भंडारा खुला हुआ है। पुरानी फिल्मों में आपने देखा होगा कि डाकू जब डाका डालने निकलते थे तो भी काली मां के चरणों में शीश झुकाकर सफलता की प्रार्थना करते थे और अपनी रक्षा के लिए दुकान बंद करता साहूकार भी दुर्गा मां से रक्षा की प्रार्थना करता था। लुटने और लूटने के बीच साझा तत्व एक ही - ‘प्रार्थना’ का था। मजे की बात यह है कि ‘ईश्वर' और 'सत्य’ को ,दोनों अपने-अपने हिसाब से तब भी परिभाषित करते थे और अब भी कर रहे हैं।
सोशल मीडिया का जो इको सिस्टम है उसमें सक्रिय समूहों को अपने-अपने ‘इको सिस्टम’ तैयार करने की यांत्रिक सुविधा है। इस वजह से सत्य और विचार की सूचनाओं में घालमेल तथा हस्तक्षेप का जो स्तर है, खुद उसके सच ने बहस का एक नया संसार खोल दिया है।उसकी हलचल और शोर की शक्ति असीमित है। शिकारी गुमनाम रह कर जंगल में लाशें बिछा सकते हैं या फूल खिला सकते हैं।
इसने न सिर्फ सूचना-पत्रकारिता को निगल लिया है बल्कि राजनीतिक अभियानों, निजी संबंधों, सामाजिक गतिविधियों, मनोरंजन व्यवसायों, शासन-प्रशासन और यहां तक कि आंतरिक और सीमा सुरक्षा तक को अपने दायरे में एकमेक कर दिया है। आपका मोबाइल दुनिया से संपर्क का एक निजी यान है जिसमें ज्ञान और संचार के हाईवे पर कभी भी छुपे या खुले रहकर उतर जाने की सुविधा है। यह सुविधा पूर्वाग्रहों, समुच्चयों और शर्तों की पुनर्रचना के साथ आती है। पत्रकारिता जिस स्तर पर अपनी पहुंच नहीं बना सकती थी, सोशल मीडिया ने वह पहुंच पैदा की है। नतीजा यह है कि पत्रकारिता की विश्वसनीयता; पहुंच की ताकत से टकरा रही है और सोशल मीडिया कंपनियां ‘न्यूज पब्लिशर्स’ की सत्ता-नियंता हो गई हैं।
मोटे तौर पर सिर्फ ट्विटर पर हर सैकंड में छह हजार ट्वीट होते हैं और इनमें दस प्रतिशत सक्रिय लोग ही अस्सी प्रतिशत की साझेदारी बनाते हैं। फेसबुक, इंस्टाग्राम, व्हाट्सएप एक ही कंपनी की अलग-अलग सुरंगें हैं।इन पर हाइपर एक्टिव हरकारे हैं। ये सब मिलकर - करोड़ों की आदतों , विचारों, भय और खुशियों को आकार देते हैं। ‘फोमो’ (यानी FOMO - ‘फीयर ऑफ मिसिंग आउट’) एक ताजा शब्द है। वह ऐसी मानसिक अवस्था है जिसमें आदमी को डर लगने लगता है कि कहीं दुनिया में जो हो रहा है, वह उसे कटा हुआ तो नहीं है, इसलिए वह लगातार पोस्ट और अपडेट के लिए बेचैन रहने लगता है। इस बेचैन आत्मा की शिकारी है मार्केटिंग डायनेमिक्स, जिसका सबसे बड़ा तत्व है -‘आकर्षक झूठ’, जो सोशल मीडिया की रेवेन्यू धारा का आधार है। अभिव्यक्ति की चाहत में डूबे उपयोगकर्ता की पसंद के आधार पर यह प्रक्रिया वहां पहुंचती है जहां बाजार उपभोक्ता के लिए न होकर, उपभोक्ता स्वयं बाजार बन जाता है। जैसाकि सिद्धांत है,सत्ता में हिस्सा बंटाने सब लपकने लगते हैं। अब डिजीटल न्यूज और डिजीटल कॉमर्स दोनों में नए जनसेवक और नए साहूकार सैर कर रहे हैं।
सोशल मीडिया कंपनियां डाटा की इस अंतर्निहित शक्ति को पहचानती हैं कि चालाक लोग और खतरनाक समूह अपने उद्देश्यों के लिए उनके सिस्टम का उपयोग किस हद तक कर सकते हैं। रूस, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, मिस्र और ईरान की मिसालें बताती हैं कि यथार्थ की लोकतांत्रिक सत्ता में यह आभासी सत्ता किस स्तर तक हस्तक्षेप करने की ताकत रखती है। हैशटैग इस डाटा बाजार का क्रांति घोष है। शेयरिंग इसकी चाल है। यह तात्कालिकता में जलवाअफरोज़ होती है। लंदन से लाल किला जोड़ सकती है। एजेंडा इसी से चलता है, ट्रेंड इसी से बेचे जाते हैं। लेकिन सवाल यह है कि जब हम एक सूचना-सभ्यता में है तब क्या मौजूदा संवैधानिक-लोकतांत्रिक समाजों में अभिव्यक्ति के इस मॉडल से डर कर रहा जा सकता है? आखिर बरसों से चले आए एक तरफा सूचना-प्रवाह के विरुद्ध एक दूसरा तंत्र भी तो इसी से विकसित हो सका है। अब युद्ध भी सूचनाओं का ही है। इसका अन्य पक्ष यह है कि राजनीति तो इसका मुकाबला अपने तरीके से कर सकती है जैसे ‘चौकीदार चोर है’ हैशटैग को ‘हम सब चौकीदार’ से निरस्त किया जा सकता है। लेकिन राष्ट्र की जनसत्ता के नैतिक मानक भी यहीं से गढ़े जाने लगें तब क्या होगा?
क्या कोई ‘समांतर जनतंत्र’ खड़ा किया जा सकता है? सोशल मीडिया कंपनियों के अपने निर्वासन ,अपने स्वागत ,अपने दंड और अपनी आदर्श पुस्तिका होगी जो आपकी कीमत पर लिखी जायेगी ?
आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के इस ईश्वर की राष्ट्रों से परे जवाबदेही क्या होगी? डाटा की तानाशाही से क्या कोई ‘हैशटैग’ व्यवस्थाओं को तहस-नहस भी कर सकता है? भीड़, नफरत, शर्म और गर्व के उसके अपने तार्किक मैनुअल होंगे। ट्रोल, ब्लॉक, अधिकार और तख्तापलट की उसकी सत्ता होगी। तब किसकी मौज होगी? हैशटैग ‘#नियंत्रण’ इसका उत्तर नहीं, हैशटैग ‘#आत्म नियंत्रण’ इसका जवाब है। और यह एक दिन भीड़ के ट्रेंड से नहीं, व्यक्तिगत मानवीय मूल्यों की सूक्ति से ही तय होगा।
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