इतिहास में जाने के लिए गलतियां भी ऐतिहासिक होनी चाहिए। एक होती है छुरी और एक होती है सोने की छुरी। सोना दूसरे को न मिल जाए, इसलिए कुछ लोग इसे खुद के पेट में मार लेते हैं।
इस क्रूर समय में हर चीज, यहां तक कि एक नौजवान मौत भी, ऊंची राजनीतिक लड़ाई का मामूली सामान ही है। और, हमेशा की तरह सच यही है कि जब सत्ता का सट्टा इंटेलेक्चुअल कैसिनो में खेला जा रहा हो, तो हारे कोई भी, नाल तो विचारधारा का उस्ताद ही काटता है।
इतिहास में जाने के लिए गलतियां भी ऐतिहासिक होनी चाहिए। एक होती है छुरी और एक होती है सोने की छुरी। सोना दूसरे को न मिल जाए, इसलिए कुछ लोग इसे खुद के पेट में मार लेते हैं। सुशांत मामले में एक के बाद एक खुल रही परतों ने इस विचार पर एक बार फिर से मुहर लगा दी है। जब अधीर रंजन चौधरी ने आरोपी रिया चक्रवर्ती को बंगाल का ब्राह्मण बताकर अभिरक्षा का झंडा लहराया, तो यह वृत्त पूरा हो गया। सुशांत सिंह राजपूत, राजनीतिक बिहार का बेटा तो हो ही गया था और कंगना हिमाचल की बेटी। शिवसेना के बारे में तो कहना ही क्या। उसकी हर लड़ाई महाराष्ट्र की अस्मिता के नाम पर ही शुरू होती है। विडंबना यह है कि यह सब उस मुंबई की रंगभूमि पर हो रहा है, जहां से चलने वाला एक उद्योग अखिल भारतीय बाजार से अपनी तिजोरियां भरता है।
बात एक मौत से शुरू हुई थी। इसके केंद्रीय पात्र फिल्म उद्योग से जुड़े हुए थे, जो अपने आप में पैसे, प्रसिद्धि, और रहस्यमय जटिल आंतरिक रचना का सर्वज्ञात उदाहरण है। ग्लैमर और अकूत धन की शक्ति वहां साधनों की कालिख को धुंधला कर देती है। इस पृष्ठभूमि में तस्करों, अंडरवर्ल्ड सरगनाओं, कई फिल्मी हस्तियों और उनके सुविधाजनक राजनीतिक संबंधों का इतिहास भी है। पिछले कुछ सालों में शर्म और सार्वजनिक लज्जा के सिद्धांत में भारी फेरबदल हुआ है। कॉरपोरेटीकरण से जहां धन के स्रोतों का नियमन हुआ है, वहीं उद्देश्यों का अंतरण भी हो गया है। पहले कला के दीवाने प्रोजेक्ट बनाते थे और उसके लिए धन जुटाने निकलते थे और अब धन किस प्रोजेक्ट से आएगा, इस पर कला जुटाई जाती है। इसलिए अब रिश्तों को छुपाने की बजाय खुलकर इस्तेमाल करने में हिचक नहीं है। जैसा कि हमारे एक युवा रचनाकार मित्र दुष्यंत ने कहा, अब पत्रकार नेताओं की भाषा बोलते हैं, नेता गुंडों की भाषा बोलते हैं, गुंडे धार्मिक गुरुओं की भाषा बोलते हैं, धार्मिक गुरु पूंजीपतियों की। और पूंजीपति…? सब गोलमाल हो गया है। इस गोलमाल के बीच तमाम महारथी डिजिटल प्लेटफार्म पर अपने व्यवसाय के ‘आउटलेट’ खोल रहे हैं। एजेंडे को अवसर उपलब्ध हैं। भक्तों और निंदकों की वैचारिक दुश्मनियों का क्रूरतम विद्रूप आत्मा के भोजन के नाम पर पेश-पेश होता रहता है। इस तरह दोनों तरफ के सिद्धांतवीरों का कारोबार चलता रहता है। इसीलिए कंगना रणौत के उदाहरण को आइसोलेशन में नहीं देखा जाना चाहिए। उनका अपना व्यावसायिक अतीत रहा है। वह सबसे पहले, स्थापित सत्ता को चुनौती देने वाली फेमिनिस्ट की तरह उभरीं। जब तक उनकी फिल्मों के चरित्र नई पीढ़ी के बाजार को संबोधित करके बॉक्स ऑफिस खींच रहे थे, तब तक उद्योग के लिए सब ठीक था। मगर व्यवहार में निषिद्ध क्षेत्रों में ऐसा हस्तक्षेप जो आंतरिक व्यावसायिक हितार्थियों को भयाक्रांत कर दे तो जोखिम बढ़ जाता है। खतरा आसन्न देख ऊपर से लिबरल, आजादी की समर्थक, कला की प्रेरक और प्रतिभा की संरक्षक जैसी छवियां अंततः सामूहिक व्यावसायिक हितों का रक्षण करने में ही अपनी मुक्ति पाती हैं। इस बाजार में संजय दत्त के गुनाह या सलमान की सजाएं कोई नैतिक मायने नहीं रखतीं। ‘मीटू ‘या ‘खानदानवादी गिरोह’ की चोटें भी चयनात्मक साबित होती हैं। कंगना के मामले में यह युद्ध बहुआयामी हो गया। उद्योग के भीतर तो चोट खाए लोग थे ही , ‘राष्ट्रवादी’ होने के मसले ने उनके विरुद्ध प्रतिपक्षी बौद्धिक तमंचों की बाढ़ भी खड़ी कर दी।
दिलचस्प है कि इस तड़ातड़ी में कभी शिवसेना को अराजक तत्वों की सांप्रदायिक जमात कहने वाले योद्धा भी प्रकरांतर से शिवसेना की सेवा में चले गए। दुश्मन के दुश्मन दोस्त। उन्होंने ‘महाराष्ट्र सरकार के गृह मंत्री’ और ‘शिवसेना के छुट्टे समूहों की कार्रवाई’ को बौद्धिक रबर से मिटा दिया। इस तरह ‘मणिकर्णिका’ की टूट में मौन का एक सामूहिक उत्सव सृजित हो गया। इसमें उद्योग की राजनीति भी थी और राजनीति का उद्योग भी।
अब ज्यादा से ज्यादा इसकी एक परिणति यह होगी कि कंगना रणौत अभिनेता से नेता में ठीक तरह से तब्दील हो जाएंगी। आरोपी रिया चक्रवर्ती के समर्थन में जो बाढ़ खड़ी की गई है, उसका सुशांत की मृत्यु के सत्य को जानने से शायद ही कोई लेना-देना है। वह तो अपने अपने पक्ष पर झपट्टा मार लेने की चील गति का अंतिम प्राप्य है। (सांत्वना के लिए, अलबत्ता मारिजुआना को वैध करने की मांग का आंदोलन शुरू हो ही गया है)।
इस सबके बीच, तथाकथित सिद्धांतवादियों में भी एक मौत के प्रति करुणा कहां है? कहते हैं, शिवसेना अपने एक रसूखदार पर छाया पड़ने की आशंका से इस कदर त्रस्त थी कि मसला दिशा सालियान की मौत से जुड़े पुलिस रिकॉर्ड गुम हो जाने से निकलकर महाराष्ट्र-बिहार-हिमाचल-बंगाल की अस्मिता को प्राप्त हो गया। इस प्रकरण ने साबित कर दिया है कि इस क्रूर समय में हर चीज, यहां तक कि एक नौजवान मौत भी, ऊंची राजनीतिक लड़ाई का मामूली सामान ही है। और, हमेशा की तरह सच यही है कि जब सत्ता का सट्टा इंटेलेक्चुअल कैसिनो में खेला जा रहा हो, तो हारे कोई भी, नाल तो विचारधारा का उस्ताद ही काटता है। क्या सुशांत ने इस विराट वैचारिक टीआरपी वाले दृश्य की कभी कल्पना भी की होगी?
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