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देसी पल्प की दिलचस्प दास्तान
लेखक पत्रकार यशवंत व्यास की यह किताब उन पाठकों के लिए है जो कभी पागलों की तरह स्कूली किताबों में छुपाकर लुगदी कागज़ों के उस तिलिस्म में क़ैद हो जाया करते थे I ये उपन्यास कैसे लिखे जाते थे, कौन लिखता था, कैसे छपते थे और कैसे रेलवे स्टेशन की बुकस्टालों, फुटपाथ के खोकों और किराए पर किताबें देने वालों की चलित लाइब्रेरियों तक जा पहुंचते थे ?
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नया शिल्प और ताज़गी
बहुत बड़ी खूबी है !
- ' चिंताघर ' पर श्रीलाल शुक्ल
पूरे जेबकतरे हैं, लिखने से पहले जेब काट लेते हैं... बोलने से पहले जीभ काट लेते हैं, जो सोचता हूँ , भांप लेते हैं !
- ' बोसकीयाना' पर गुलज़ार
महत्वपूर्ण और
विलक्षण है !
-'कॉमरेड गोडसे ' पर कमलेश्वर

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