बैंक कर्ज से लिए अपने फ्लैट को बेचना चाहता हूं। कहते हैं प्रॉपर्टी बाजार में कीमतें तिगुनी हो गई हैं। बिक्री से मिले रुपये लेकर किसी विलक्षण उद्योगपति के पास जाकर कहना चाहता हूं, ‘हे प्रभु, मेरे पास यह धनराशि है। क्या आप मुझे कुछ ‘एडवांस’ या ‘बिना ब्याज का लोन’ नहीं देंगे, ताकि मैं आपकी ही कंपनी के शेयर खरीद कर आपकी बराबरी में मालिकाना हक की उन्नति के शिखर देख सकूं? मुझे उद्यमी बनना है, आप बना ही दीजिए।’ पड़ोसी कहते हैं, ‘ऐसा भूलकर भी मत करना, वरना अपनी मौजूदा छत से भी हाथ धो बैठोगे। उद्योगपति का गार्ड भी तुम्हें घुसने नहीं देगा।’
मैं सोचता हूं, ऐसे भले लोग होते हैं। यहां तक कि ऐसे ही भले लोग होते हैं, जो एडवांस देकर आपकी कंपनी बना देते हैं। मैं ठीक-ठाक आदमी हूं, कोई भला आदमी ‘एडवांस’ देकर मेरी कंपनी क्यों नहीं खड़ी कर सकता? पड़ोसी ज्यादा ठीक हैं। वे भगवान के भक्त हैं। उन भगवान के, जिनके यहां मनीऑर्डर से भी चढ़ावा आता है और गुप्तदान से भी। मनीऑर्डर भेजने वाले की जगह पता लिखा होता है- श्री भगवान। पाने वाले की जगह पता लिखा होता है- श्री भगवान। श्री भगवान, श्री भगवान को ही देते हैं। श्री भगवान का मनीऑर्डर गलती से भी मंदिर में झाड़ू लगाने वाले के बच्चों के पते पर नहीं पहुंचता। यही सत्य है। यही शिव है। यही सुंदर है।
‘तुम इस सुंदरता को क्यों नष्ट करना चाहते हो?’ पड़ोसी ने दयापूर्वक मेरी ओर देखा। ‘मैं तो इस सौंदर्य को बढ़ाना चाहता हूं यदि गुप्तदान में किसी अफीम तस्कर या परम पुण्यात्मा ने पचास लाख चढ़ाए, तो श्री भगवान को चाहिए कि वे इसमें से कुछ अंश हमारी कंपनी बनाने के लिए भी दे दें। वैसे भी गुप्तदान में गिरे पैसे पर कमाई के स्रोत का कोई बंधन नहीं होता।’
‘श्री भगवान कंपनियों को रुपये नहीं देते। श्री भगवान सिर्फ आशीष की वर्षा करते हैं।’ ‘आशीष और रुपयों में क्या अंतर है?’ ‘आशीष ईश्वर में विलीन अदृश्य शक्ति है और रुपये कारखानों में तैयार किए गए कागज के टुकड़े।’ ‘लेकिन कंपनी तो इन कागज के टुकड़ों से ही बन सकती है।’
‘आशीष की वर्षा से आपकी आत्मा के बीज इतने उन्नत हो सकते हैं कि वे अपनी बालियों में कंपनी उगा सकें। इन बालियों को प्रोसेस करके कागज के वे टुकड़े बनाए जा सकते हैं, जिन्हें रुपये कहते हैं। लोग इसीलिए अफीम तस्करी में कमाएं या सूदखोरी में, अपने बढ़े हुए कागज के टुकड़ों के स्टॉक का अंश श्री भगवान को उसी अनुपात में अर्पित करते हैं।’ ‘अर्पण के लिए फिर ‘कुछ’ चाहिए। उस ‘कुछ’ के लिए ‘कुछ और’ चाहिए। ‘कुछ और’ के लिए ‘कई और’ चाहिए। यह सब मैं कैसे ला सकता हूं?’ ‘ तुम कोई ट्रस्ट बना सकते हो, पर श्री भगवान का आशीष उसमें होना चाहिए। तुम कोई जमीन खरीद सकते हो, पर श्री भगवान की कृपा उसमें चाहिए। तुम अखबार निकाल सकते हो, लेकिन उसमें भी श्री भगवान की इच्छा के अनुरूप खबरें लिखीं और छपी होनी चाहिए। तुम इनमें से, कहीं से भी शुरू कर सकते हो।’ ‘जब सब कुछ श्री भगवान के अनुसार ही होना है, तो मुझे अपनी कंपनी ही क्यों बनानी चाहिए? उनकी किसी कंपनी में ही क्यों नहीं शामिल हो जाना चाहिए?’
‘यह इतना आसान नहीं है। इसके लिए भी श्री भगवान का आशीष चाहिए।’ पड़ोसी की राय के बाद से मैं गुड़गांव से लेकर खेलगांव तक और शिमला से लेकर रामपुर तक चक्कर लगा रहा हूं। वित्त मंत्री, कानून मंत्री और कंपनी मामलों के मंत्री तक एक ही बात कहते हैं, श्री भगवान का आशीष चाहिए। श्री भगवान मिल जाएं तो पहचानूंगा कहां से? उन्हें पहचानने के लिए भी तो श्री भगवान के आशीष चाहिए।
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