साल दूसरा है, लेकिन वक्त पहले से सख्त है। कई चेहरे इस आंधी के थमने तक जिंदगी के पेड़ से झड़ चुके होंगे। सूखे पत्तों और कर्कश बहसों की सरसराहट ठहरी हुई हवा में रह जाएगी। मगर तब भी, कुछ धुनें आप शेष रहती सुन सकेंगे। ये धुनें उस तार से निकली होंगी, जो जिंदगी के कई अनाम संगीतकार बना रहे हैं।
उनका नाम तर्कों, बहसों और हाहाकार के मशहूर लाउडस्पीकरों पर सुनाई नहीं देगा। ये बिलकुल विख्यात लोग नहीं हैं। ये किसी अखबार, चैनल, पार्टी या आंदोलन के लाइसेंस लटकाए या छुपाए महापुरुष भी नहीं हैं। न इनके पास ज्ञान बांटने की कढ़ाही है, न हर श्रद्धांजलि या भलाई में एजेंडा घोल देने की दूरदर्शिता। ये बहुत साधारण लोग हैं। इनकी असाधारणता इसी में निहित है कि किसी फोटो, सूचना अथवा दुःख को ये अपनी महानता का ईंधन बनाने से इन्कार करते हैं। धंधे का चूल्हा जलाये रखने के लिए एक निरंतर डायलॉग फेंकने की बहुलोकप्रिय प्रणाली से इनका दूर तक वास्ता नहीं है।
इनसे पिछले छह हफ्तों में बहुत करीब से भेंट हुई, गोकि कई किलोमीटर की दूरी थी। वे भूले से भी अपना नाम प्रकट करने से इन्कार करते हैं। उन्हें दूसरों की करनी में रस नहीं है। वे सुबह नौ से रात दो तक 'ऑनलाइन' हैं। फरीदाबाद, हिसार, मुंबई, इंदौर, लखनऊ, गाजियाबाद, अहमदाबाद, उदयपुर और बंगलूरू जैसे अनेक नामों तक। ये अद्भुत हैं, इनका प्रेम संक्रामक है।
वे लेखक नहीं हैं, पाठक हैं। वे संगीतकार नहीं हैं, राग छू सकते हैं। वे भक्त नहीं हैं, लेकिन लीन हैं। वे तर्क नहीं करते, हालात में फर्क डालते हैं। उनमें से एक ने देर रात कुछ सांस लेकर कामू के नॉवेल प्लेग के एक चरित्र तारो के वक्तव्य का एक अंश व्हाट्सएप किया-
'महामारी मुझे इसके सिवा कोई नया सबक नहीं सिखा पाई कि मुझे तुम्हारे साथ मिलकर लड़ना चाहिए। हममें से हरेक के भीतर प्लेग है, धरती का कोई आदमी इससे मुक्त नहीं है। और मैं यह भी जानता हूं कि हमें अपने पर लगातार निगरानी रखनी होगी, ताकि लापरवाही के किसी क्षण में हम किसी चेहरे पर अपनी सांस डाल कर उसे छूत न दे दें। दरअसल कुदरती चीज तो रोग का कीटाणु है। बाकी सब चीजें ईमानदारी, पवित्रता- इंसान की इच्छाशक्ति का फल हैं- ऐसी निगरानी का फल जिसमें कभी ढील न हो। एक नेक आदमी, जो इसमें कभी ढील नहीं देता, किसी को छूत नहीं देता।'
एक अन्य ने मुझे वे मोबाइल नंबर और अकाउंट नंबर भेजे हैं, जिनके साथ संदेश है -'ये व्यक्ति और उसके नंबर धोखे के हैं। साढ़े छह लीटर ऑक्सीजन के लिए साढ़े सात हजार ट्रांसफर करवाने के बाद उसका पता नहीं रहता। किसी परेशान आदमी को भूलकर भी ये नंबर फॉरवर्ड मत कीजिए।' ऑक्सीजन लंगर की गूगल लोकेशन भेजते हुए एक मददगार बताता है-तत्काल उन्हें वहां भिजवा दीजिये। वर्ना उनकी भी सीमाएं हैं। और हां, फिलहाल एक दिन चल जाए उतना ही लें, ताकि तीन दूसरों का भी काम चल सकेगा।
ज्ञानरंजन ने पहल के 125 अंकों के साथ उसके अंतिम होने की घोषणा इसी मौसम में की - 'पहल एक देह की तरह थी, जिसकी आयु भी है। यह आयु आ गई। हम अमर नहीं थे और मर भी नहीं रहे हैं...हम मुखौटे उतारते रहे और अब प्रतिदिन नए मुखौटे तैयार हो रहे हैं। ऐसे वक्त में हम आपसे विदा ले रहे हैं।'
... और आगे कई तारे टिमटिमा रहे हैं -
सर , कुछ इंतजाम हुआ आपके पेशेंट का? एक डिस्ट्रीब्यूटर का नंबर दे रहा हूं। उसके पास कुछ स्टॉक आया है, हॉस्पिटल को सीधे दे रहे हैं। जरा पर्ची भेजिए।
वो बच नहीं पाई। डॉक्टर, वेंटीलेटर, दवा सब था।...हरि इच्छा। सबका दुःख है, मेरा कोई उससे बड़ा थोड़े ही है। अलबत्ता, देबू चौधरीजी का कोई अपडेट है?
अभी एक स्प्रेडशीट शेयर कर रहा हूं, उसमें सब दूर के सही-सही नंबर हैं। देख लीजिएगा, शायद बाकी के काम आएं। रात तक और अपडेट कर दूंगा।
नहीं सर, पैसे की कोई प्रॉब्लम नहीं है। उसके पिताजी को बता नहीं सकते, बीमार हैं सदमा लगेगा। सीधे ले जा रहे हैं। हम हैं तो सही।
जी ,उनके घर पर ही हूं। निर्मल वर्मा के अंतिम अरण्य के पेज नंबर 67 पर लाइन है ना-जिसे हम पीड़ा कहते हैं, उसका जीने या मरने से कोई संबंध नहीं है। उसका धागा प्रेम से जुड़ा होता है, वह खींचता है तो दर्द की लहर उठती है।...यहां वही दर्द है।
ऑक्सीमीटर, सैनिटाइजर ,रेमडेसिविर, ऑक्सीजन, गाइडलाइन। फिर सुबह हो रही है। युद्ध और महामारी में ज्ञान और गाली, कालाबाजारी, लूट, जमाखोरी और मुनाफे की चाकूबाजी चलती रहती है। पर उस चाकू से कहीं चमकदार है उन जियालों का होना जिनका संदेश मोबाइल पर फिर टिमटिमा रहा है –
सब पे आती है, सबकी बारी से
मौत मुंसिफ है, कम-ओ-बेश नहीं
जिंदगी सब पे क्यों नहीं आती ?
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