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ये किस देश-प्रदेश के आदमी हैं?

Yashwant Vyas


इसी देश में, इस प्रदेश से उस प्रदेश की सीमा पर गिराए जाते भग्न स्वप्नों के विराट अवशेषों की तरह इनके लिए धरती पीली पड़ गई है और आकाश सफेद। बदन पर सिर्फ व्यवस्था की नीलें हैं।

Yजब भविष्य में कुछ दिखाई न दे, तो वर्तमान बुरा और निरर्थक दिखाई देने लगता है। आशा के बिना कोई खिड़की, कोई दरवाजा, कोई फूल, कोई रंग आत्मा को नहीं छूता। रोज एक नई हिला देने वाली तस्वीर निकल आती है। आप सिर्फ स्तब्ध रह जाते हैं।

हाल की कई घटनाओं में से एक यह थी कि महाराष्ट्र सरकार ने यूपी-बिहार के लोगों को बसों में भरकर मध्यप्रदेश की सीमा पर डंप कर दिया। जिस मंदिर के पास उन्हें लावारिस छोड़ा गया था, वहां कोई सरकारी कारिंदा न था। सिर्फ दो बैनर लगे थे-यूपी और बिहार। महाराष्ट्र ने अपना बोझ मध्य प्रदेश पर डाल दिया। मध्य प्रदेश उन्हें उत्तर प्रदेश-बिहार की सीमा पर डालेगा। वहां से ‘उनके अपने’ प्रदेशों का सिलसिला शुरू होगा। पंजाब, छत्तीसगढ़, राजस्थान-हर सीमा पर यही हाल है। इस सरकार के पुलिस वाले उस सरकार के पुलिस वालों से जूझ रहे हैं। ट्रक में छुपकर, डंपर में घुसकर, पटरियों के सहारे या पैदल ही अपना जीवन रथ खींचते ये लोग भूख, थकान, हताशा और अनिश्चय के बैनर बन गए हैं। इसी देश में, इस प्रदेश से उस प्रदेश की सीमा पर गिराए जाते भग्न स्वप्नों के विराट अवशेषों की तरह इनके लिए धरती पीली पड़ गई है और आकाश सफेद। बदन पर सिर्फ व्यवस्था की नीलें हैं। अब वे ‘पर-प्रांतीय’ घबरा गए हैं। किसी तरह घर जाना चाहते हैं। वे जिन चमचमाते शहरों को बनाने गए थे, उन शहरों में उनके लिए आश्वस्ति का कोई कोना नहीं था। वहां उनका घर तो बना नहीं। वहां तो उन्होंने पसीना बहाया था। लोगों ने मोल दिया और छुट्टी पाई। तो, जो भी मोल मिला, उसमें अपने हृदय की स्मृति बांधकर उन्होंने सदैव अपने घर को भेज दिया था।

अब जब उन्हें लग रहा है कि जीवन अनिश्चित है, सिर्फ महामारी का संताप तय है, तो घर के अतिरिक्त और क्या आश्वस्ति हो सकती है? बकौल विनोद कुमार शुक्ल, घर तो जाने से ज्यादा लौटने के लिए होता है, और जब जीवन का भय हो तो घर की आश्वस्ति ही सब हो जाती है।

महामारियां मानवीय समुदाय के भीतर जितने भी अंतर्विरोध होते हैं, उन्हें उघाड़कर रख देती हैं। जब सरकारी हुक्म से शहर के फाटक बंद होते हैं, तो लोग ऐसा आचरण करने लगते हैं, जैसे व्यक्तिगत भावनाएं होती ही नहीं। अर्जियां, मेहरबानी, खास इंतजाम, मित्रता, प्रेम आदि शब्द दोहराए गए और बेमानी हो जाते हैं, क्योंकि तब उन्हें सिर्फ कतरन की तरह संवादों में चिपकाया जाने लगता है। बीच-बीच में झूठी कल्पनाओं से महामारी के अंत की कल्पित भविष्यवाणियों से हृदय को सहलाया जाता है।

न चलने वाली ट्रेनों और न आने वाले मेहमानों के आने की कल्पनाओं से काम चलाया जाने लगता है। एक कारोबार शुरू होता है जीवन और छाया का। भय और कल्पित विश्वास का। तब हम बाकी सब भूल जाते हैं। उस भूल में एक रोलर चलता है, जो सबको एक कर देता है। एक वक्त आता है, जब भविष्यवाणियों का कल्पित सोता भी सूख जाता है।

जब लॉकडाउन शुरू हुआ, तो सिर्फ सब्जी, दूध, किराना, मास्क, सैनिटाइजर के इंतजाम का भयावह शोर ही था, जो कोरोना की फैलाई डरावनी खामोशी के नीचे बह रहा था। तब कैसे अचानक सहमी हुई जिंदगी से कुछ हिस्से उठे और बांध तोड़कर बह निकले। ये तमाम कामगार थे, जिनके भीतर से, धुंधली उत्साहहीन विज्ञप्तियों के बीच आवाज उठी कि चलो, यहां अब गुजारा नहीं। सरकार लॉटरी निकालकर जब तक ट्रेनों में भेजेगी, तब तक तो चुक ही जाएंगे।

सो, वे संघर्ष के नए सिरे तलाशने पैदल ही चल पड़े। सोशल डिस्टेंसिंग के सच पर नई ट्रेन की छोटी-सी अफवाह भी भारी पड़ गई। सब ध्यान से देख रहे हैं और जान भी रहे हैं। कुछ ही प्रदेश हैं। दीमापुर-कोलकाता से बंगलूरू-हैदराबाद तक से ज्यादातर राहें उधर ही मुड़ रही हैं। वहां से देश का विमर्श और विचार की दिशा करने वाले ज्ञानी भी बड़ी संख्या में आते हैं। मगर वे बरसों से राजधानियों से विचारो की बौछारें ही भेजते रहे हैं। ‘चेंज’ के अलावा उन जगहों पर भला कौन लौटता है? उन इलाकों में राजनीतिक-आर्थिक बदहाली दूर करने का जिम्मा कोई क्यों ले? कौन इसमें पड़े कि चलो, हम उन इलाकों को ऐसा बनाएं कि वहां उद्योग पनपें, रोजगार बने, विकास हो और नई राहें खुलें।

हमने तो सालों-साल बाद भी उन इलाकों को वैसा ही बनाए रखा। आखिरकार वे रोटी की तलाश में महानगरों में निकल गए। अब जब वे महामारी के संकट से उपजी मजबूरी में अपने गांवों को लौट रहे हैं, महामारी का ‘पीक’ आया हो या न आया हो, सियासत का ‘पीक’ जरूर आ गया है। अस्तित्व की चिंता, लॉकडाउन का वक्त, वायरस की दहशत, मौत के आंकड़े, अर्थव्यवस्था के भय, उपकार के प्रकार, डिजाइनर मास्क, फेसबुक लाइव, हाहाकारी वेबिनार-सब अपनी-अपनी ब्रांडिंग मांग रहे हैं।

कोरोना कोई सरकारी आपदा नहीं है, लेकिन इसने राज और समाज की सच्चाई खोलकर रख दी है। जिन गांवों को ये लौट रहे हैं, वे सालों-साल बाद भी इन्हें सहेजने लायक तो बनाए नहीं जा सके और जिन शहरों में ये गए थे उसके दिल में इनकी कोई जगह नहीं। क्यों कुछ इलाके दसियों साल बाद भी सिर्फ भूख और मजबूर कामगार ही सप्लाई करते हैं? विडंबना है कि हमारे कुछ ज्ञानीजन अब फरमा रहे हैं कि ये अपनी जिजीविषा से गांवों की भी तकदीर बदल देंगे। गोया गांवों की अर्थव्यवस्था में अचानक स्थानीय समाज और राजनीति का एक चमत्कारिक डंडा घूमेगा और वे रातों-रात खेतों में ‘साथी हाथ बढ़ाना’ गाते दिखाई देने लगेंगे। सब लहलहाने लगेगा, सरकारी इश्तहार उनकी मुस्कराहटों से भर जाएंगे। हां, एकदम ठीक कहा आपने, यही लोग हैं जो असली भारत बनाते हैं। उनकी आत्मशक्ति पर हमारा भरोसा टिका है। इनका तो पीढ़ियों से जिम्मा है चीजों को बनाने का। यानी आपकी राय में सारा का सारा जिम्मा सिर्फ इन्हीं का है। फिर आपका जिम्मा क्या है? सिर्फ उनके शहर लौटने की नई तारीख तय करना?

आप ऐसा सोचते हैं और खूब सोचते हैं। कोरोना काल में अल्बैर कामू के ‘प्लेग’ की बात याद करें-‘प्लेग का कीटाणु न मरता है न हमेशा के लिए लुप्त होता है। वह सालों तक फरनीचर और कपड़ों की अलमारियों में छिपकर सोया रह सकता है, वह शयन गृहों, तहखानों, संदूकों और किताबों की आलमरियों में छिपकर उपयुक्त अवसर की ताक में रहता है। और शायद फिर वह दिन आएगा, जब इंसानों का नाश करने और उन्हें ज्ञान देने के लिए वह फिर चूहों को उत्तेजित करके किसी सुखी शहर में मरने के लिए भेजेगा।’ क्या हम अपने जवाबों के लिए तब तक इंतजार करेंगे। आखिर हम किस देश-प्रदेश के आदमी हैं?

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