New Year 2023: अंतिम अध्याय कभी नहीं लिखा गया
- Yashwant Vyas
- Jan 1, 2023
- 6 min read
कोई अंतिम अध्याय कभी नहीं लिखा गया, क्योंकि हर बार कुछ नया लिखा जाना बाकी होता है। तो, नए साल में क्या यह संकल्प बेहतर न होगा कि कुछ संकल्प अधूरे ही रह जाएं। कोई अंतिम अध्याय कभी नहीं लिखा गया, क्योंकि हर बार कुछ नया लिखा जाना बाकी होता है। तो, नए साल में क्या यह संकल्प बेहतर न होगा कि कुछ संकल्प अधूरे ही रह जाएं। कोई अंतिम अध्याय कभी नहीं लिखा गया, क्योंकि हर बार कुछ नया लिखा जाना बाकी होता है। तो, नए साल में क्या यह संकल्प बेहतर न होगा कि कुछ संकल्प अधूरे ही रह जाएं।

वास्तविक संसार में संपूर्णता नहीं बसती, वह केवल मनुष्य के दिमाग की उपज है – नोबुआ सुजूकी
नया साल शुरू होने के पहले ही, जाते साल के आखिरी शनिवार तक आते-आते मेरे पास इतने कैलेंडर और संकल्प पत्र इकट्ठे हो गए कि संकल्पों और तारीखों की खाली जगहें आक्रांत हो उठीं। यह अनुभव पिछले सालों से बिल्कुल अलग था। सत्ता, पैसे, आकांक्षाओं और अमरता के अहसास की रातों से मुक्ति पाने की कामना से भरा सुंदर जीवन शायद ही सबको नसीब होता है। अमूमन ‘मैं तो सब छोड़कर आराम से अपनी दुनिया में रहूंगा’ कहने वाले भीतर ही भीतर अपनी श्रद्धांजलि के विज्ञापन की प्रूफरीडिंग तक खुद करके जाने को बेकरार पाए जाते हैं।
ओह, शायद ये भी एक किस्म की ‘गैसलाइटिंग’ है। मेरे एक साथी का संदेश कहता है, मरियम-वेब्स्टर डिक्शनरी ने गए साल का सबसे बड़ा शब्द चुना है – ‘गैसलाइटिंग’। इसे एक हजार सात सौ चालीस प्रतिशत अधिक खोजा गया। ये हमारी जिंदगी में आने वाले नए साल की नींव में लगा खिलखिला रहा है।
मैंने डिक्शनरियां छानना शुरू किया। हर डिक्शनरी ने साल के कुछ शब्द छांटे हैं। हम क्या हैं, क्या देखना चाहते हैं, क्या सोचते हैं और क्या करते हैं – इन शब्दों की एक झलक से पता चलता है। 1938 के आसपास एक नाटक खेला गया और उसी नाटक पर एक फिल्म भी बनी, ‘गैसलाइट’। कहानी यह है कि पति, पत्नी को यह विश्वास दिलाने की कोशिश कर रहा है कि वह पागल हो रही है। कुछ रहस्यमय घटने लगता है। घर की गैसबत्तियां बिना छुए मद्धम पड़ जाती हैं। पर पति बीवी को कहता है, ये मद्धम नहीं हुई हैं – शायद तुम खुद पर ही विश्वास नहीं कर पा रही हो।
इस तरह ‘गैसलाइटिंग’ एक क्रिया, एक संज्ञा बन गई है। यह भटकाव और अविश्वास का चालक शब्द है जिसमें शामिल है खुद के फायदे के लिए दूसरों को भ्रमित करने की कोशिश। मनोवैज्ञानिक तौर पर लंबे समय तक किसी को इस तरह ‘मैनीपुलेट’ करना कि उसे खुद के विचारों और यथार्थ पर ही संदेह होने लगे – गैसलाइटिंग है। यह इस कदर की जा सकती है कि आदमी अपना विश्वास खो दे और मानसिक अस्थिरता के चलते गैसलाइटिंग करने वाले पर ही आश्रित हो जाए। इरादतन साजिश के तहत झूठ की लंबी योजना का यह उपक्रम निश्चित ही हाल के साल का सबसे डरा देने वाला बिम्ब है।
सोशल मीडिया, इवेंट-ब्रांडिंग, फेक न्यूज, डीप फेक और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के माहौल में यह देखना दिलचस्प होगा कि ‘झूठ’ सिर्फ व्यक्तियों या समूहों के बीच सीमित हो सकता है लेकिन ‘गैसलाइटिंग’ विराट अर्थों में व्यक्तिगत या राजनीतिक – दोनों में हो सकती है।
गैसलाइटिंग पीडि़त को अपराधी और अपराधी को पीडि़त साबित करने का जाल बुनती हैं। अकूत धन लेकर ‘साधु’ बने रहना और जिससे धन लिया है, उसे ‘शैतान’ स्थापित कर देना गैसलाइटिंग है। मुहावरे का मजा यह है कि अब कुछ मरीज जिनकी शिकायतों को डॉक्टर मनोवैज्ञानिक लक्षण कहकर खारिज कर देते हैं, वे मरीज डॉक्टर को कहते हैं – वह गैसलाइटिंग कर रहा है। और कंपनियां? जलवायु परिवर्तन के लिए पोस्टर जारी कर रही होती हैं, लेकिन उनके भीतरी दस्तावेज को छानिए तो पर्यावरण की आत्मा घायल करने वाला शस्त्रागार छुपा मिलेगा। गलती मानने के बजाय आपकी समझ पर शक का चाकू फेंक दिया जाए -‘माफ कीजिए। आप ही गलत समझे’ – तो यह नई गैसलाइटिंग हो जाएगी।
लेकिन, लोग ‘पर्माक्राइसिस’ के पाले में चले गए हैं और ‘गोब्लिन मोड’ से इश्क फरमाने लगे हैं। ये दो और शब्द हैं जो कॉलिन्स और ऑक्सफोर्ड डिक्शनरियों के मार्फत साल के प्रतिनिधि शब्द बनकर उभरे हैं। ये एक संकट से दूसरे संकट में प्रवेश करने जैसे हैं। कोरोना की एक लहर जाती है, दूसरी चली आती है। युद्ध है कि एक से दूसरी स्टेज में जा रहा है। अनिश्चितता और असुरक्षा खत्म नहीं होती दिखती, तो यह ‘पर्माक्राइसिस’ का वक्त है। लेकिन क्या इसी वजह से हम ‘गोब्लिन मोड’ में चले जाएं?
गोब्लिन मोड पहली बार ट्विटर पर 2009 में उभरा और 2022 में तो यह पॉपुलर कल्चर का हिस्सा हो गया। 2023 में ‘गोब्लिन मोड’ ढेरों युवाओं की शरणस्थली होता जान पड़ता है। ‘गोब्लिन मोड’ में जाने वाले कहते हैं – खामख्वाह के आदर्शों की कोई जरूरत नहीं, हम चाहें जब उठें, चाहे जैसे खाएं, चाहे जैसे जिएं। आलसी, लक्ष्यहीन, बेशर्म, गंदे, अस्त-व्यस्त – जो भी आप कह लें। लेकिन यह हमारी जीवनशैली है।
यह कहने को एक विद्रोह भी है। कोरोना काल में वर्क फ्रॉम होम, ओटीटी, सोशल मीडिया और जीवन के स्थापित मूल्यों से चिढ़ का सुपर मिक्स। यों गोब्लिन एक काल्पनिक चरित्र है, जो कथा में बच्चों को आकर्षित करके आजादी की तरफ खींचता है। मनाही के बावजूद बच्चे उसके रोमांच में और उन्मत्त होते जाते हैं। अंतत: गोब्लिन उन्हें समुद्र में डुबो देता है। गोब्लिन मोड वह भी है जब आदमी के भीतर का जानवर बाहर आ जाए। आसपास देखें तो ऐसा लगने लगता है, जैसे संत्रास और ‘पर्माक्राइसिस’ ने ‘गोब्लिन मोड’ को ऐसे आकर्षक धोखे में बदल दिया है जब हम अपने भीतर के जानवर से मुलाकात को अधीर हो रहे हैं।
लेकिन, बात यहीं तो नहीं रुकती। यहां तो चिंता ‘गैसलाइटिंग’ के अलावा ‘मूनलाइटिंग’ की भी है। जब पूरी तनख्वाह लेकर आप एक जगह काम कर रहे हों, तो बचे समय में दूसरी जगह ‘गुमनाम’ काम करना और उसकी कमाई लेना ‘मूनलाइटिंग’ है। नहीं तो एक और ठौर है – ‘क्वाइट क्विटिंग’। यानी कॉन्ट्रैक्ट के हिसाब से जितना बनता है, उससे रत्तीभर भी ज्यादा काम नहीं करेंगे। टालेंगे, बचेंगे, रोकेंगे।
और, आप जो कर रहे हों सो तो है ही है, विवादों से ध्यान हटाने के लिए इवेंट खड़ा कर देने वालों के लिए ‘स्पोर्ट्सवॉशिंग’ शब्द भी मिल गया है। यानी ध्यान बंटाओ, खेल कर जाओ।
मैंं साल के शब्दों पर और ज्यादा वक्त खपाता तब तक फ्रांसिन रूसो का एक ताजा आलेख मेरे मेल बॉक्स में आ गया है। साइंटिफिक अमेरिकन में उन्होंने मनोवैज्ञानिक कैथलीन कैप्स के ताजा अध्ययन की सूचना दी है। अब तक ‘लक्ष्य कैसे प्राप्त करें’, ‘सफल कैसे हों’ जैसे धुआंधार नारों से भरे उत्प्रेरक सत्संगी सज्जन बरस भर मुझे मिलते रहे हैं, लेकिन वर्षान्त में पहली बार कहीं से ऐसा अध्ययन सामने आया जो बताता है कि अपने अधूरे लक्ष्यों से मुक्ति कैसे पाएं? अगर आपकी महत्वाकांक्षाएं ‘महंगी’ पड़ने लगें तो उनकी पहचान कैसे करें? क्या जरूरी है कि हर संकल्प पूरा हो?
लक्ष्य अनुकूलन का एक पैमाना बना है। इस ‘गोल एडजस्टमेंट स्केल’ में पूछा जाता है कि जिस लक्ष्य पर आप लगे हैं, उससे हटने को कहा जाए तो आपकी क्या प्रतिक्रिया होगी? जाहिर है कि यह सवाल उन सबसे किया जाता है जो इच्छा, परिणाम, रुकावट और योजना के असंतुलन के शिकार हैं। उनका संकल्प था, पूरा नहीं हो रहा। रुकावटों का आकलन उन्होंने किया नहीं था या योजना सफल नहीं हो सकी। पर असफलता का तत्काल स्वीकार और अपनी सामर्थ्य का सही आकलन जरूरी है। हो सकता है आप इंजन का आविष्कार न कर सकते हों, लेकिन इमारतें बनाने में रुचि के चलते खूबसूरत स्टेशन तो बना सकते हैं।
कहते हैं, जो लोग हद से ज्यादा संतुष्ट हो जाते हैं, उनमें आत्मसुधार की इच्छा घट जाती है। उनकी कामयाबी की संभावनाएं और मौके कम हो जाते हैं यानी हद से ज्यादा संतोष यथार्थ बोध को धुंधला कर देता है।
नोबुआ सुजूकी ने ‘वाबी साबी’ में कहा है, अगर संपूर्णता आपका लक्ष्य है तो यह आपके जीवन के सारे पक्षों को रंग देगा और आप उदासी से भरे जंगल में खोकर नेत्रहीन हो जाएंगे। यदि जंगल को उसके पूरे वैभव के साथ देखना हो तो अपूर्णता की चाह भीतर रखनी होगी।
हम कोई कदम दोबारा नहीं रखते। कोई अंतिम अध्याय कभी नहीं लिखा गया क्योंकि हर बार कुछ नया लिखा जाना बाकी होता है।
तो नए साल में क्या यह संकल्प बेहतर न होगा कि जिंदगी में कुछ लक्ष्य अधूरे भी रह जाने चाहिए। लक्ष्य के शिकार होने से बेहतर है, जिंदगी का नींबू-पानी पीना!
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