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छावा के वक्त में पूरब और पश्चिम

अब जब नए-नए भारत कुमार बन रहे हैं और अस्सी के दशक में छपे शिवाजी सावंत के उपन्यास ‘छावा’ की फिल्मी कामयाबी पर 2025 में रुदन और हर्ष एक साथ आसमान छू रहे हैं, मनोज कुमार के उस चित्र को देखना कितना सुकून देता है, जिसमें वे शहीद भगतसिंह की मां विद्यावती जी के साथ मुस्करा रहे हैं।

अमर शहीद भगत सिंह की मां के साथ मनोज कुमार।

जिंदगी सिर्फ सब्र का खेल नहीं होती, बल्कि उससे अधिक कुछ और भी होती है। – फ्रांत्स काफ्का

हर कालखंड खुद को अपना पुनरीक्षण करते हुए पाता है। नैतिकताओं और मानदंडों का पुनराविष्कार होता है, लेकिन मूलभूत मानवीय मूल्य वही बने रहते हैं। जिंदगी इन सबके बीच कहीं होती है, हर कहीं होती है और अपने अर्थ खोजती पाई जाती है। सभ्यताओं के बीज इन खोजों के साक्ष्य देते हैं। लोकप्रिय मनोरंजन माध्यमों की गूंज भी इन साक्ष्यों में एक होती है। दर्शन का एक स्पर्श इन कलाओं को सामाजिक ताप की रीडिंग देता है। सवाल यह है कि क्या हम उस रीडिंग को नोट करना चाहते हैं? अगर हां, तो मनोज कुमार अपने काल का एक ताप है।

मनोज कुमार से मेरी मुलाकात बरसों पहले हुई थी, जब वे अधलेटे से अपने शयनकक्ष में हमसे कुछ बातें साझा कर रहे थे। होम्योपैथी के वे मास्टर थे। ये दवाएं धीरे-धीरे असर करती हैं और हमारे लिए पाठकों की मदद का एक कॉलम लिखने को वे तैयार हो गए। मैंने कहा, इसे कई लोग महज ‘प्लासीबो इफेक्ट’ (छलिया मनोवैज्ञानिक असर) कहते हैं-तो वे मुस्कराए-इफेक्ट है ना? हमें कोई दावा नहीं करना चाहिए। मगर यदि कुछ लोगों के जीवन में सिर्फ आशा की ताकत भी आती है, तो क्या यह कम बड़ा इफेक्ट है? इसके साथ ही बात उन भूमिकाओं और कथानकों की ओर मुड़ गई थी, जिनकी वजह से वे ब्रांड ‘भारत कुमार’ बन गए थे।

हम मनोज कुमार की फिल्मों के गीतों के बिना पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी के स्कूली जलसों की कल्पना भी नहीं कर सकते। फिल्लौरी जी की लिखी आरती ‘ओम जय जगदीश हरे’ जब कल्याणजी-आनंदजी के संगीत में एक नाद के साथ ऊपर उठती थी, तो बालक भारत, बड़ा होकर भारतीय मूल्यों की छवि को पर्दे पर साक्षात् कर देता था।

जाहिर है, लोकप्रिय सिनेमा से जन्मजात दुखी कुछ लोग उसके सफल कारीगरों को अक्सर ‘चालाक फिल्मवाला’ कहकर एक तरफ हो जाना चाहते हैं, लेकिन मास अपील के समकालीन संदर्भों को शहीद, उपकार, पूरब और पश्चिम या रोटी, कपड़ा और मकान की प्रभाव-अन्विति से कैसे अलग किया जा सकता है।

शुद्ध कमर्शियल सिनेमा के क्राफ्ट की दृष्टि से देखें, तो इमर्जेन्सी के ठीक पहले रिलीज हुई ‘रोटी, कपड़ा और मकान’ से बेहतर तत्कालीन स्थितियों के संकेत नहीं मिलते। ‘गरीबी हटाओ’ का नारा चल रहा था और ‘महंगाई मार गई’ गाते हुए एक पात्र कह रहा था ‘पहले मुट्ठी में पैसे जाते थे, थैले में शक्कर आती थी। अब थैले में पैसे जाते हैं-मुट्ठी में शक्कर आती है।’ इंजीनियरिंग की डिग्री लिए बड़ा बेटा दर-दर नौकरी के लिए घूम रहा है और अंत में पिता का इलाज न करवा पाने के क्षोभ में उस डिग्री को पिता की चिता में ही जला देता है। नेहरूवादी स्वप्न के धराशायी होने की यह इंतिहा थी, जब बेरोजगारी एक सामाजिक सत्य बन गई थी और भारत के आदर्शों को बेकार मानकर छोटा भाई (अमिताभ) भ्रष्ट तौर-तरीकों की ओर मुड़ जाना ही श्रेयस्कर समझता था। एक दिहाड़ी मजदूर (मौसमी चटर्जी), को खाने-कपड़े के बदले, आटे पर बलात्कार का शिकार होना पड़ता है। परिस्थितियां ऐसी हैं कि गरीब और मध्यवर्ग ही समस्याओं से नहीं जूझ रहा, उच्च वर्ग के पूंजीपति को भी बढ़ते सरकारी टैक्सों से शिकायत है। शायद शरण्य मुंशी ने एक जगह लिखा है, आज भी स्थितियां कमोबेश वही हैं, पर-जोया अख्तर की फिल्म ‘गली बॉय’ में दीवार पर रोटी, कपड़ा और मकान के साथ अब इंटरनेट भी लिख दिया गया है।

राजेश खन्ना जहां मध्यवर्ग के अर्जित सांस्कृतिक मूल्यों की उजली आकांक्षाओं को रूमान देते थे, मनोज कुमार उससे पहले राष्ट्रीय आकांक्षाओं को लाक्षणिक रूप से अपने कोर में समेट लेना चाहते थे। वे लेखक-निर्देशक भी थे और कहा जाता है कि ‘शहीद’ का प्रेत लेखन-निर्देशन भी उन्हीं का था। ‘जय जवान-जय किसान’ के शास्त्रीजी वाले आह्वान पर ‘उपकार’ बनी थी। ‘पूरब और पश्चिम’ सभ्यताओं के संघर्ष को अपनी थीम बनाती थी। ‘जब जीरो दिया मेरे भारत ने’ गाया जाता है, तो बाद में बनी देव आनंद की ‘देस-परदेस’ से उसका मौलिक अंतर साफ देखा जा सकता है।

पारंपरिक सांस्कृतिक गौरव, संयुक्त परिवार की भारतीय परंपरा और फैशन के नए दौर से गांव-देहात वाले ईमानदार नायक का टकराव उस समाज की लोकप्रिय पहचान थी। ‘तंग पैन्ट पतली टांगें’ या ‘गंगाराम की समझ में ना आए’ अथवा ‘जय बोलो बेईमान की’ नए समाज के उदय से उत्पन्न घर्षण की चीख हैं। ‘शोर’ एक ऐसी फिल्म थी, जिसका उल्लेख कलारूपों की दृष्टि से कम ही किया जाता है, लेकिन एक महीन कथा-सूत्र पर बनी वह ऐसी फिल्म थी, जिसके लिए मनोज कुमार को श्रेष्ठ संपादन का अवॉर्ड मिला। कहना न होगा कि जूरी में हृषिकेश मुखर्जी थे, जिनके सिनेमा और संपादन पर लोग कुर्बान हुए जाते हैं। बच्चे की आवाज लौटाने के लिए ऑपरेशन का खर्च जुटाने में रात-दिन एक करके पिता जब पाता है कि ऑपरेशन सफल हो गया, तब उसकी खुद की सुनने की क्षमता चली गई है। संभवत: यह मनोज कुमार की उन गिन-चुनी फिल्मों में है, जिनमें उनका नाम भारत कुमार नहीं था। (कहते हैं इसका एक सूत्र बाद में ईरानी फिल्म ‘द साइक्लिस्ट’ में मिलता है।)

मनोज कुमार सत्यजित राय के बड़े प्रशंसक थे। उनकी एक फिल्म समारोह में मुलाकात हुई, तो मनोज ने पूछा, ‘आपने उपकार (1967) देखी? तो राय बोले, बड़ी मेलोड्रॉमेटिक थी। मनोज ने कहा, चारूलता (1964) में बादलों की गरज के बीच चमकती बिजली में जब सौमित्र चटर्जी, माधवी मुखर्जी को देखते हैं, वो भी कम मेलोड्रॉमेटिक नहीं था।’ राय ने मुस्कराकर प्यार से कंधा थपथपा दिया।

पॉपुलर मीडियम में बिम्बों का प्रयोग मेलोड्रॉमेटिक होता है और भारतीय फिल्में संगीत से या पात्रों के चाल-चलन से उसे समकालीन बनाने के फॉर्मूले ईजाद करती हैं। यदि ‘उपकार’ में मलंग के जरिये प्राण का चरित्र खड़ा किया गया था, तो ‘क्रांति’ में दिलीप कुमार का, लेकिन एक वक्त आया, जब ‘कलयुग की रामायण’ को सेंसर की वजह से ‘कलयुग और रामायण’ करना पड़ा था। अगर ‘चना जोर गरम’ और ‘हाय-हाय ये मजबूरी’ के मसाले अपने संपूर्ण व्यावसायिक रंग में घोले गए थे, तो ‘पानी रे पानी तेरा रंग कैसा’ जैसे दार्शनिक गीत में लैंस मछुआरिनों के आस-पास घूमता था।

इस लिहाज से विद्वान लोगों द्वारा इसे अपने समय के दुखों को, शिकायतों को या उलझनों को उभारकर पॉपुलर कला माध्यम से मनोरंजन की लूट में शामिल कर लेने वाला फॉर्मूला कहा जाता है। मगर एक औसत आदमी की मामूली जिंदगी में यदि किसी नेता का खोखला नारा आशा जगा सकता है, तो मनोरंजन के अंधेरे-उजाले को किसी सामाजिक सत्य का स्पर्श दे देना क्या इतना मामूली काम है कि उसके संकेतों को ही दरकिनार कर दिया जाए। जब निरूपा राय ‘पूरब और पश्चिम’ में कहती है-देश पर मरने वाला कभी नहीं मरता, तब दर्शकों की पूरी कतार किस भावना से भर उठती है?

अब जब नए-नए भारत कुमार बन रहे हैं और अस्सी के दशक में छपे शिवाजी सावंत के उपन्यास ‘छावा’ की फिल्मी कामयाबी पर 2025 में रुदन और हर्ष एक साथ आसमान छू रहे हैं, मनोज कुमार के उस चित्र को देखना कितना सुकून देता है, जिसमें वे शहीद भगतसिंह की मां विद्यावती जी के साथ मुस्करा रहे हैं।

पॉपुलर आर्ट में ‘रोटी, कपड़ा और मकान’ एक दस्तावेज है, ‘उपकार’ अंजलि और ‘शहीद’ श्रद्धांजलि। ‘पूरब और पश्चिम’ की आरती को फिर से याद कीजिए। जैसा कि शुरू में मैंने जिंदगी के बारे में काफ्का को उद्धृत किया है। उनका ही दूसरा कथन है- दुनिया की तमाम भाषाएं (भावनाओं का) खराब अनुवाद भर हैं, और जिंदगी का अर्थ ही है, कि वह रुक जाती है। हिंदी के पॉपुलर कल्चर में मनोज कुमार भी इसी तरह- उनके प्रशंसकों में हमेशा याद किए जाएंगे।

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