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अच्छे दिन एक्सप्रेस में लटका हुआ कवि

जनपथ से अच्छे दिनों को भोगकर कवि राजपथ होता हुआ उस स्टेशन की तरफ निकल गया, जिधर से उम्मीद थी कि अब नए वाले अच्छे दिनों की सुपरफास्ट छूटेगी।

उसने बरसों की कविताई में कई मित्र बनाए थे – सस्पेंड हुए अफसर, चुने गए अध्यक्ष, मनोनीत किए गए सलाहकार, घोषित की गई निर्णायक समिति के सदस्य, न घोषित किए गए दबंग और राष्ट्रव्यापी क्रांति के किराना मर्चेंट! यहां तक कि कुछ सामान्य मनुष्य भी उसकी सूची में थे। इन पर वह जनपथ की सैर में भी उसी मगन भाव से कविताई करता था, जितना राजपथ के भ्रमण में। वह उदात्त, कर्मशील और सपनों का प्रेमी था।

कवि का उद्देश्य एक था – अपने अच्छे दिन। जनपथ के अपने अच्छे दिन की याद अभी ताजा थी। एकदम सेकुलर, बिना निर्णय किए भी निर्णीत हो जाने वाली, समान भाव से दंगाई और चंगाई को ग्रहण करने वाली। क्या दूब थी! ऊब भी सुंदर लगती थी। मौन, आवाज लगता था। कोई ऋतु हो, अपना राज लगता था। बरसों बरस हुए, कभी सोचा नहीं कि क्रांति की यह कविताई रुकेगी। बरसों बरस हुए, कभी विचार ही नहीं आया कि राज का भोग और क्रांति की कविता का आनंद, दो भिन्न बातें हो सकती हैं। वे दोनों को वैसे ही चित्त में साधते थे, जैसे चिटफंड कंपनी चलाने वाला अंतिम नागरिक के सुनहरे भविष्य को साधता है।

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‘तुम क्या सोचते हो? अच्छे दिन एक्सप्रेस की तरफ चलोगे?’ पहली बार उन्होंने मुझसे पूछा। एकदम निर्विकार, तेजस्वी, भविष्यप्रेमी चेहरा। ‘मैं तो सिर्फ ऐसे गीत सुनता रहा हूं। आप जनपथ के कवि हैं। आप ही बेहतर बता सकते हैं।’ मैंने उनसे कहा। ‘तुम देख रहो हो, मैं उधर जा रहा हूं जहां से अच्छे दिनों की सुपरफास्ट छूटने वाली है। दिशा स्वयं आमंत्रित कर रही है।’ ‘पर आप तो पहले कहते थे कि अच्छे दिन ‘आलरेडी’ चल रहे हैं। आगे अच्छे दिन लाने की मार्केटिंग करने वालों को पीटो, रोको, वर्ना देश गर्त में चला जाएगा। अब आप खुद अच्छे दिनों की सुपरफास्ट की तरफ जा रहे हैं? यह सुपरफास्ट एक्सप्रेस चला कौन रहा है?’ ‘जीवन और अच्छे दिन के बीच का संबंध तुम नहीं समझ सकते। देखो सभी को अपने अच्छे दिनों का हिस्सा ग्रहण करना चाहिए। जो भी चला रहा हो, हमें तो सिर्फ चढऩा है।’

‘अच्छे दिन से आपका मतलब प्याज, पेट्रोल, दूध वगैरह के रेट से है या टू जी-थ्री जी-कोल-कॉमनवेल्थ के खेल से? जहां तक मैं समझता हूं, न अच्छे दिन आते हैं, न बुरे दिन आते हैं। ये तो लोग हैं कि आते या जाते हैं।’ ‘ध्यान दो कि, जो आते हैं, वही लाते हैं। यदि कुछ प्राप्त करना है तो आने वालों को ही प्राप्त होगा। सुफरफास्ट आएगी तभी तो तुम्हें लेकर जाएगी।’

‘लेकिन जब आप जनपथ पर घूमते थे और राष्ट्र को प्रेरणा देने के लिए नए-नए सू्त्र बांटते थे, तब आपका विचार था कि ये तथाकथित अच्छे दिन की बातें फ्रॉड हैं।’ ‘फ्रॉड को समय सापेक्षता से समझो। जब जनपथ पर कुछ नहीं रहा तो जहां है, वहां की खोज अनिवार्य है। जनता की खातिर मुझे यह करना ही पड़ेगा। नए पथ को प्रशस्त करना ही पड़ेगा। यदि तुमने इसे नहीं समझा तो तुम्हारी सुफरफास्ट छूट जाएगी। तुम्हें जनपथ से तो कुछ नहीं मिला। अच्छे दिन एक्सप्रेस से भी हाथ धो बैठोगे।’ अचानक वे मेरा हाथ पकड़कर बैठ गए। उनके मन को पढ़ना आमतौर पर कठिन होता है, किंतु आज वे बुरी तरह खुले हुए थे और पढ़े जा सकते थे।

उन्होंने कुछ सिद्धांत सुझाए – 1.जब तक कांग्रेस की वापसी की संभावनाएं नहीं बनती, तब तक अपने सपनों को स्थगित रखना मुश्किल काम है। इसलिए नए रास्ते खोलने होंगे। 2.यदि हमने 10 जनपथ की एजेंसी चलाई है, तो ‘अच्छे दिनों’ की एजेंसी भी हम ही सबसे अच्छी चला सकते हैं। 3.मलेरिया हो रहा हो तो यह नहीं देखना चाहिए कि कुनैन का इंजेक्शन देने वाला जनपथ-परंपरा से आता है या नहीं। 4.जनपथ, मूलत: एक विचार है। यह अच्छे या बुरे, अतीत या भविष्य दोनों किस्म के विशेषणों और कालक्रमों से मुक्त होता है। 5.प्रतिरोध की शक्ति को तब तक बचाकर रखना चाहिए जब तक कि नया केंद्र भी जनपथ के विचार से ही अनुप्राणित न हो जाए। 6.किसी भी पथ का अंतिम उद्देश्य, स्वयं के आनंद की प्राप्ति है। क्रांति की संभावनाएं, आनंद की संभावनाओं का अंतिम निष्कर्ष है। 7.अंतिम निष्कर्ष के लिए अच्छे दिनों का गीत गाना चाहिए। वे सिद्धांत बताकर चले गए। पता चला कि इसके ठीक बाद जब वे अच्छे दिन एक्सप्रेस में भागते हुए लटके तभी रेलंमत्री ने चौदह प्रतिशत के हिसाब से उनकी जेब काट ली। अब तो जनपथ का थाना भी रिपोर्ट लिखाने लायक नहीं बचा। क्रांति की कविता कैसे लिखेंगे?

*और अंत में दूसरों से बुद्धिमान हो सको तो बनो, मगर उन्हें यह बताओ मत। – लार्ड चेस्टर फील्ड की लाइन

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