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आईएसआई एजेंट से बातचीत

धूप तेज थी, पर हवा ठंडी थी। पत्ते हरे थे, पर पीलेपन से आक्रांत थे। गेट था, पर खुला था। घास थी पर छितरी हुई थी। चाय थी, पर पानी नहीं था। जूते थे, पर तलुए नहीं थे। गला था, मगर कॉलर नहीं थी। बांहें थीं, मगर मुड़ती नहीं थीं। सड़क थी, लेकिन रुकी हुई थी। मोड़ था, मगर अंधा था। घुमाव था, मगर सीधा था। घड़ी थी, कांटें नहीं थे। बैटरी थी, ऊर्जा नहीं थी। लालटेन था, शीशे की हंडी नहीं थी। बत्ती थी, रोशनी नहीं थी। दाढ़ी थी, कुछ हल्की थी। गुस्सा था, कुछ उबले-गिरे-जले हुए दूध जैसा।

इस माहौल में दोनों मिले।

पहले ने दूसरे को तीसरे से मिलाया, ‘ये आईएसआई एजेंट हैं। अभी-अभी मुजफ्फरनगर दंगे से आए हैं। पहले अहमदाबाद, दिल्ली, लखनऊ, आजमगढ़, श्रीनगर वगैरह में ‘रिटेलर’ की तरह छोटा काम करते थे। अब इलाके की पूरी एजेंसी इनकी है। ये पक्के एजेंट हैं।’

पहला परिचय देकर चुप हुआ। दूसरे ने कहा, ‘मैं देश के सपनों के लिए अपने सपने कुचलना चाहता हूं। मुझे बताइए कुचलना कहां से शुरू करें?’ एजेंट ने कहा, ‘यह अजीब बात है। सपने कुचलना तो अच्छी बात है पर आप यह क्यों करना चाहते हैं? यह काम तो हमारे जिम्मे छोडि़ए।’

वे बोले, ‘कुछ मुकद्दर की बात है, कुछ इरादे की। मैं नहीं चाहता कि लोग मुझे भी कहें कि मैं वह बोलता हूं जो दूसरे लिखकर देते हैं। असल में मैं लिखा हुआ लेता हूं लेकिन ‘इम्प्रोवाइज’ करके अपना फ्लेवर डाल देता हूं, मैं जितना पूछ रहा हूं, उतना जवाब दो।’

‘आप पूछ नहीं रहे, भाषण दे रहे हैं।’

‘मैंने अब तक यह तो कहा ही नहीं कि सरकार को क्या करना चाहिए। फिर मेरी बात तुम्हें भाषण क्यों लग रही है?’

‘क्योंकि आपके भाषण तो सरकार के भाष्य होते हैं, यही मुझे बताया गया था। सरकार आप चलाते हैं, पार्टी आप चलाते हैं, जीवन-मृत्यु आपके हाथ है।’ एजेंट ने अर्ज किया।

‘मुझे यह पता होता तो मैं सरकार उलट चुका होता।’

‘पर यह काम भी हम जैसे लोग करते हैं। आप तो सरकार बनाते हैं।’

‘मैं सोचता हूं, सरकार उलटाने का काम ज्यादा क्रिएटिव है। आमतौर पर तब, जबकि सरकार अपनी ही हो और सबको आपसे डर लगता हो। मुझे पता नहीं चलता और एक वाक्य से नया संसार खड़ा हो जाता है। यह चमत्कारिक है। मुझे ऐसा लगता है जैसे आंखों से देखता हूं और स्टील की चम्मचें मुड़ जाती हैं। बांहें चढ़ाता हूं और गलीचे बिछ जाते हैं। कुछ अदृश्य शक्ति है मुझमें जो मेरे घर से शुरू होती है और देश के कोने-कोने तक कोर्निश की आवाजें पैदा कर देती है। मैं अभी इसका परीक्षण कर रहा हूं।’

‘माफ कीजिए। हम आईएसआई के एजेंट जरूर हैं, लेकिन अदृश्य शक्तियों का विश्लेषण हमारे बस का नहीं है। हम अदृश्य रहते हैं, काम करवा डालते हैं लेकिन ऐसे चमत्कार तो आप ही कर सकते हैं।’

‘देखो तुम भी मान गए। मेरे पास भ्रष्टाचार को लेकर विचार हैं, कश्मीर में उत्पीड़न और ग्रांट रोड पर रुपए की कीमत गिरने तक मैं बोल लेता हूं। श्रीलंका में सिंहली-तमिल, जो भी हों, उन पर अंग्रेजी में ऐसा भी बोल सकता हूं जिसे बस्तर के आदिवासी, कोयला खदानों में खड़े रहकर भी समझ सकें। मैं पॉप, जैज और पंक पर बोल सकता हूं। जमीन, पानी और जंगल पर बोल सकता हूं। तुम बोलो, किस पर बोलूं?’

‘आपने मुझे किसी और काम से बुलाया था। शायद सपने कुचलने की प्रक्रिया समझने के लिए।’

‘सपने? कौन से सपने?’

आईएसआई एजेंट सकते में आ गया। उसे जो मिलवाने लाया था, उसे भी समझ में नहीं आया कि एजेंट के सामने उनकी प्रतिष्ठा कैसे बचाए?

एजेंट ने ही मोर्चा संभाला, ‘आपने कहा था मैं देश के सपनों के लिए अपने सपने कुचलना चाहता हूं।’

‘कुचलने के लिए तुम्हारे पास कुछ और क्या है? मैं तो सपने रखता ही नहीं।’

‘कुचलना आपको है या मुझे? हम लोग सपनों के नहीं यथार्थ के धंधे में हैं।’

‘यथार्थ के धंधे में आईएसआई एजेंट घुस गए हैं।’ उन्होंने एकाएक बयान जारी किया और तड़ातड़ तेजी से निकल लिए।

एजेंट और उनसे मिलवाने वाला ठगे से देखते रह गए।

पेड़ों पर लगे कैमरों से पूरे देश में बयान चल रहा है।

एजेंट बोरिया-बिस्तर बांध रहा है। वह कह रहा है, ‘अब यहां मेरी कहां जरूरत रह गई है?’

मिलवाने वाला मिन्नतें कर रहा है, ‘आईएसआई तो दंगे-दर-दंगे काम आएगी। आप रुक जाइए।’ एजेंट कह रहा है, ‘आप खुद सक्षम हैं। इन्हें हमारे चीफ को ट्रेनिंग देने भेजिए। अपने सपनों को कुचलने की ताकत हमें भी चाहिए।’

ठिठके हुए सपने सोच रहे हैं, आईएसआई के साथ पाकिस्तान चलें या हिंदुस्तान का जनपथ ठीक रहेगा?

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