आदिपुरुष विवाद: सब पर राम तपस्वी राजा, तिनके काज सकल तुम साजा
- Yashwant Vyas
- Jun 21, 2023
- 4 min read
हर आदमी के अपने राम, अपने रावण हो सकते हैं, पर रामायण की मूल कथा में ‘अपना मजा’ बेचने की कोशिश कला का भिन्न विचार है। एक साथ श्रद्धा और मजा बेचना आखिर टेढ़ा काम तो है ही।

फिल्में पॉपुलर कल्चर का हिस्सा हैं और अमूमन यह उम्मीद की जाती है कि वे मनोरंजन करेंगी, कमाई करेंगी और रचनात्मक रूप से समृद्ध भी करेंगी। मनोरंजन को कुछ लोग उस तरह से लेते हैं, जैसे यह बहुत बड़ा अपराध हो। कलाएं अगर मन को समृद्ध न करें, तो कलाएं क्या हुईं? लेकिन इतने सरलीकरण से यह तो नहीं किया जा सकता कि कैलेंडर आर्ट को पिकासो की बराबरी पर रख दिया जाए। इसीलिए सौंदर्यशास्त्र की रचना हुई है। रचनात्मक समृद्धि की अपनी ऊंचाइयां हैं। मन की प्रफुल्लता, सुंदर जीवन का काम्य है। इसी की तलाश में सभी समृद्धियां जाती हैं। पॉपुलर कल्चर का सबसे बड़ा पक्ष यह है कि वह एक विराट समूह को संबोधित करता है। उसमें कई लोगों के सपने, आकांक्षाएं, वितृष्णाएं, विमर्श, आदर्श तथा व्यवहार के अंतर्विरोध शामिल होते हैं। हम फिल्मों को जब देखने जाते हैं, तो मन के उस पक्ष के साथ जाते हैं।
चूंकि फिल्म तकनीकी रूप से बहुत महंगा धंधा है, इसीलिए उसमें घाटे-मुनाफे का स्तर भी उतना ही ऊंचा है। उसमें ग्लैमर है, यथार्थ को बड़ा करके एक भावना को उभार कर पेश करने की शक्ति है, भीतरी संवेदनाओं को सहलाने या उत्तेजित करने की विलक्षण सामर्थ्य है। इसीलिए निर्माता, निर्देशक, वितरक, प्रदर्शक, अभिनेता, संगीतकार, लेखक-सबका एक मिला-जुला उद्योग विकट व्यावसायिक जोखिम के बावजूद इस मोहक-जादुई रचना में निमग्न रहता है। कला के पुजारी या पैसों के पुजारियों में कोई अनूठा द्वंद्व देखना हो, तो सिनेमा से बेहतर कोई मैदान नहीं है। आदिपुरुष पर मचे शोर ने फिर से इस बहस को खड़ा कर दिया है। जिस फिल्म के रूप-स्वरूप पर हंगामा बरपा है, वह तीन सौ करोड़ तो पीट ही चुकी है। फिर भी सवाल यह है कि लोकप्रिय सिनेमाई नैतिकता के आदर्श का सामाजिक आदर्शों से वास्तव में कितना लेना-देना है।
आदिपुरुष भारतीय जनश्रद्धा के केंद्र श्रीराम की कथा के पुनर्मंचन का दावा करती है। तेलुगू वगैरह संस्करणों से अलग हिंदी इलाके में उसके भद्दे संवादों पर सर्वाधिक चर्चा हो रही है। दिलचस्प यह है कि सारी सफाइयां मनोज मुंतशिर नामक सज्जन दे रहे हैं, जिन्होंने हिंदी आदिपुरुष के संवाद लेखन का काम किया है। सिनेमा महज एक लेखक का माध्यम नहीं है। वह निर्देशक का माध्यम है। निर्देशक अपने स्वप्न के अनुरूप लोगों को काम पर लगाता है। उसकी प्रतिभा में सबकी ऊर्जा निहित होती है। हिंदी में यदि ‘तेल भी तेरे बाप का’ संवाद लिखा जा रहा है, तो वह निर्देशक की परिकल्पना का हिस्सा है। निर्देशक ओम राउत की इच्छा यदि इसे गली की रामलीला का प्रहसन बनाने की होती, तो शायद कोई सवाल ही नहीं उठाता।
प्रेम अदीब-शोभना समर्थ- विजय भट्ट के रामराज्य से अरुण गोविल-दीपिका-रामानंद सागर तक की रामायण हमने देखी है। आशुतोष गोवारीकर की स्वदेश में मुहल्ला रामलीला मंचित करता है और देव आनंद की जानेमन में भी गली की भीड़ अद्भुत रामलीला का मनोरंजक अंश देखती है। जाने भी दो यारो या कलयुग की रामायण में अगर आपको कुछ संवाद और दृश्य दिखाई देते हैं, तो वे उस दावे के साथ नहीं प्रस्तुत होते कि वे तपस्वी राजा राम की जीवन गाथा का गान कर रहे हैं। ‘स्पूफ’ और मूल कथा का अंतर मिटाकर यदि कोई अपनी दुम में ही आग लगाना चाह रहा हो, तो रचनात्मकता के किस उत्कर्ष की लंका जलेगी?
धीरोदात्त श्रीराम की कथा आस्था का केंद्र यों ही नहीं बनी है। रामायण के मुहावरे का अर्थ तपस्वी राजा के विराट संदर्भों से आता है। रामायण न सिर्फ एक महाकाव्य है, बल्कि भारतीय जनजीवन की शिराओं में प्रवाहित सांस्कृतिक रक्त का हिस्सा है। इसीलिए छतों पर चादरें तानकर भी बच्चे यदि रामलीला करते हैं, तो भले ही वहां नाटकीय मनोरंजक दृश्य बन जाते हों, वे नैतिक पक्षों के चुंबकीय आकर्षण से मुक्त नहीं होते।
आदिपुरुष ‘सब पर श्रीराम की कृपा हो’-इस उद्घोष के साथ बाजार में उतरी है। यह अनायास नहीं है कि पठान के बाजार से इसके चर्चा-युद्ध को कई हलकों में चलाया गया है। माहौल देखकर पैंतरा चलाना भी व्यवसाय में एक रणनीति ही होती है। यों तो कोई उत्तम लाल बेहद निम्न कोटि के व्यक्ति हो सकते हैं, क्योंकि नाम से काम का कोई लेना-देना नहीं होता। पर किसी रचना में किसी निकृष्ट चरित्र का नाम उत्तमचंद रख दिया जाए, तो वह तंज की रचनात्मक अभिव्यक्ति बन जाती है। सिर्फ इतना कर देने से ग्रहण करने के अर्थ बदल जाते हैं, पात्र अथवा चरित्र का मार्का तय हो जाता है।
हर आदमी के अपने राम, अपने रावण हो सकते हैं, पर रामायण की मूल कथा में ‘अपना मजा’ बेचने की कोशिश कला का भिन्न विचार है। एक साथ श्रद्धा और मजा बेचना आखिर टेढ़ा काम तो है ही। कई युवक-युवतियां विचित्र महावाक्य छपे हुए टीशर्ट पहनते हैं। कई बार उन्हें पता ही नहीं होता कि वे सीने पर कौन-सा साइनबोर्ड लिए घूम रहे हैं। यह उनका अपना चयन है। लेकिन कोई उस वाक्य को पढ़कर उनसे वैसे व्यवहार की अपेक्षा तो नहीं करने लगता। आदिपुरुष ने पैरोडी होने का दावा नहीं किया, बल्कि एक महान चरित्र की महागाथा का दावा किया है। इसीलिए वह राष्ट्रवादी बनाम रचनात्मक प्रयोगशीलता की बहस में उलझ गई है।
यों भी हिंदी सिनेमा का दर्शक संजय दत्त के जेल जाने पर खलनायक को हिट कर देने का आदी है। वह जीते-जी झूठी आत्मकथाओं के संजू की जेब रुपयों से भर देता है। क्योंकि शायद वह इसे शुद्ध मनोरंजन की तरह देखता है और सामाजिक नैतिकता के खाते से धंधे की नैतिकता को नहीं जोड़ता। लेकिन, आदिपुरुष के प्रयोक्ता शायद भूल गए कि श्रद्धा की मूल कथा के दावों में पैरोडी उसे अभी भी उद्वेलित कर देती है।
आधुनिक तकनीक और फंतासी की अनूठी काल्पनिक दुनिया हम बाहुबली-राजामौली की विलक्षण कलात्मकता में देख चुके हैं, तो सिर्फ तकनीक के खाते में आदिपुरुष का क्या करें? हनुमान चालीसा की पंक्ति है- सब पर राम तपस्वी राजा, तिनके काज सकल तुम साजा। अब चाहे जो विवेचन हो, जिनके काज सजने थे, वे तो सज गए। बॉक्स ऑफिस पर करोड़ों तक आंकड़ा पहुंच गया है। बौद्धिक बाजार में लेफ्ट और राइट के सोशल मीडियावीरों ने भी हिसाब चुकता कर लिया है। अब कहा जा रहा है कि एतराज वाले संवाद बदल देंगे। यानी आप अब बदले हुए संवादों के लिए फिर पैसा देने आइए। धंधे का धंधा और क्रांति की क्रांति। आखिर सिनेमा के व्यवसाय का यह भी एक विकट पक्ष ही तो है।
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