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चुनाव की पूर्व संध्या पर चिढ़ा कवि

कवि को दंगे प्रिय हैं। इससे वह दंगे के विरुद्ध चार मीटर लंबी कविता लिख सकता है और उससे भी दस गुना बड़ा हस्ताक्षरित बयान जारी कर सकता है। इससे बहुलतावाद और धर्मनिरपेक्षता की बाजारगत संभावनाओं का सही आकलन करने में मदद मिलती है।

‘जब आप दंगे पर कविता बेचते हैं, तो कैसा लगता है?’ कवि से टीवी चैनल विशेषज्ञ ने पूछा।

‘कविता का कोई बाजार नहीं होता। मैं कविता कहां बेच सकता हूं? जो बिकता है, वह कुछ और होता है।’ कवि ने अपनी पिछली खनन माफिया के यहां की गई नौकरी से निकाले जाने के ठीक बाद लिखी पूंजी विरोधी कविता का पोस्टर उठाया।

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‘क्या आप लिखता, बिकता और दिखता में कोई रिश्ता नहीं मानते?’ चैनल विशेषज्ञ थोड़ा गंभीर हुआ। उसकी भी छवि थी। वह मानवीयता और उत्तर-मानवीयता के बीच खड़ा विशेषज्ञ-कम-एंकर था। उसकी भी नाक पर गंभीरता बैठी रहती थी। उड़-उड़ कर फिर-फिर बैठती थी। एंकर उसे हटाता नहीं था। कैमरे पर वह साफ नजर आती थी, इससे प्रोग्राम का बौद्धिक स्तर ऊपर उठ जाता था।

कवि ने भी तुक मिलाते हुए कहा, ‘लिखता, बिकता और दिखता में वही रिश्ता होता है, जो जनता, जनार्दन और मान-मर्दन में होता है। जनता जनार्दन है और उसकी मान-मर्दन करने की भावना भड़क उठे तो जो दिखा-बिका-लिखा है, वह धरा का धरा रह जाए।’

कवि खुद के कहे पर ही चकित हुआ। ‘लिखा हुआ धरा का धरा कैसे रह सकता है?’ ‘यदि मैंने ऐसा कहा है तो संदर्भ कुछ और होंगे।’ ‘संदर्भ क्या जनपथ और इंडिया गेट के बीच कुल चौराहों से निर्धारित होते हैं?’ ‘मैं सोचता हूं, चिट फंड कंपनियों से निर्धारित होते हैं।’ ‘यदि चिट फंड कंपनी आपका आह्वान करे कि आवारा पूंजी के विरुद्ध कविता लिखो और आपको एक शानदार कुर्सी देंगे, तो आप इसे किस संदर्भ में लेंगे?’ ‘मैं कुर्सी की शानदार शक्ति से कविता को शक्ति दूंगा।’ ‘पर कुर्सी की शक्ति तो चिट फंड की शक्ति है। तो, प्रकारांतर से यह हुआ कि चिट फंड की शक्ति ही कविता की शक्ति है।’

‘कविता स्वायत्त है। उसे कोई भी फंड शक्ति दे सकता है।’ ‘यानी कवि कोई भी फंड ले सकता है और उस फंड से कविता कर सकता है।’ ‘कवि को फंड चाहिए, वह चिट फंड से फंड लेकर कविता को देगा तो भी कविता, कविता ही रहेगी।’ ‘पर क्या कवि चिट फंडिया नहीं रहेगा?’ ‘कवि अंतत: मनुष्य है।’

‘इस मनुष्य की कविता चिट-फंड और दंगे की उपयोगिता पर अपना ईमान कैसे लाती है?’ ‘कवि तो जहां चलता है, ईमान लेकर चलता है। यह चिट फंड की कमाई में भी ईमान की संभावनाओं की तलाश का अद्भुत संघर्ष है। इसे कवि ही समझ सकता है।’

‘आपने देखा कि चिट फंड से कितने लुटे। धर्मनिरपेक्ष चिटफंडियों से दंगों का साइन्स आपने कब सीखा?’ ‘कवि सिखाता है। उसे सीखने की नहीं, सींचने की शक्ति चाहिए। दंगों का साइंस यह है कि संस्कृति में चिट फंड से धर्मनिरपेक्षता को शक्ति देना अत्यंत आवश्यक है। सौ प्रतिशत भ्रष्टाचारी से एक धर्मनिरपेक्षता को शक्ति मिलती है, तो एक प्रतिशत भ्रष्टाचारी सौ धर्मनिरपेक्षताओं को क्षति पहुंचा सकते हैं। मैं कविता को सींचने के कर्म में लगता हूं तो सबसे ऊपर उठ जाता हूं।’

‘मान लो आप चिट फंड से शक्ति न लें तो क्या मनुष्य आपको शक्ति नहीं देंगे?’ ‘मनुष्य शोषित है। उसे पहले शक्ति चाहिए।’ ‘मान लो आप दंगों से शक्ति न लें, तो क्या मनुष्य आपको शक्ति नहीं देंगे?’ ‘मनुष्य शोषित है। पहले उसे दंगा चाहिए।’ एंकर ने यह बात पकड़ ली और कवि की संयुक्त धुलाई पर उतर आया।

अब हुआ यह कि कवि दंगों की आवश्यकता तथा चिट फंड की उपयोगिता पर बोलने लगा और एंकर चुनाव की पूर्व संध्या में दोनों की उपयोगिता पर बहस खड़ी करने के लिए दो रिटायर्ड पत्रकारों को लाइन पर खींच लाया।

तीनों मिलकर कवि से चुनावी पोस्टरों के नारे लिखने का काम लेने की अपील करने लगे। कवि चिढ़ता गया, बहस बढ़ती गई। धर्मनिरपेक्षता गहरी होती गई, फंड चिट फंड सापेक्ष होता गया। पत्रकार भी वहीं से रिटायर हुए थे, जहां कभी कवि था।

एंकर भी वहीं था, जहां इन्हें रिटायर करने वालों का चैनल था। बहस भी वहीं थी, जहां सबको सब करने वालों का सैटेलाइट था। कवि चिढ़ा हुआ है। पब्लिक, जाने वाली सरकार के फंड से आने वाले चुनावी विज्ञापन का शीर्षक गीत सुन रही है। कवि ने फंड लेकर लिखा है, तो क्रांति होगी। चिट-फंड से ही होगी। पर शाश्वत सवाल है, पब्लिक का फंड पब्लिक को कब मिलेगा?

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