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बहुजन राजनीति का काला

कलाओं की भी अपनी राजनीति होती है और विभिन्न कलारूपों में उसे लक्ष्यपूर्ति के लिए उतारा जा सकता है। इसीलिए पार्टी का साहित्य, विचारधारा के नायक तथा कथाओं के आरंभ और अंत तक लक्ष्य के हिसाब से निर्मित किए जाते रहे हैं। यह भी एक किस्म का फॉर्मूला है, जिसे व्याख्याकार अपने विमर्श से आगे बढ़ाते हैं।



सिनेमा में लोकप्रिय यथार्थ की मिलावट इच्छित यथार्थ से की जाती है। यानी ‘जो सबको पसंद हो’, उसमें ‘इन्हें यह पसंद करना चाहिए’ का ऐसा मिश्रण जो नाटकीय तत्वों से भरपूर हो। रजनीकांत की राजनीति उस प्रदेश की राजनीति है, जो फिल्मों से इस मिलावट की शक्ति लेती है। वहां फिल्मों में अभिनय करने वाले (एमजीआर) और उनके संवाद लिखने वाले (करुणानिधि) ही पक्ष-प्रतिपक्ष दोनों होते हैं।

चूंकि जयललिता की मृत्यु के बाद उपजे शून्य में कमल हासन और रजनीकांत दोनों अपनी राजनीति तलाश रहे हैं, इसलिए रजनी की ताजा फिल्मी पेशकश, उस राजनीतिक परिघटना की पड़ताल में मददगार हो सकती है।

रजनीकांत यदि पूर्व राजा, माफिया डॉन या जमींदार का रोल भी करे, तो उसे गरीबों की मदद करनी ही है। मगर काला में निर्देशक पा. रंजीत की मदद से जो काला कालिकरन पेश किया गया है, वह एक साथ कई शिकार करके बहुजन विमर्श से शक्ति लेना चाहता है।


मिथकों के साथ नामों का चुनाव, रंगों का चुनाव, रिश्तों और प्रसंगों का चुनाव-सभी अपनी खास बुनावट के साथ आते हैं। भैरव से लेकर हरि तक-सबकी प्रतीकात्मक पृष्ठभूमि है। जमीन पर जिंदा रहने की या जमीन पर कब्जा करने की। यही उसकी राजनीति है।


आर्य-द्रविड़, दलित-सवर्ण, दलित-मुस्लिम, राम-रावण, मार्क्स-बुद्ध, शैव-वैष्णव, गंदा-साफ, गोरा-काला जैसे तमाम द्वंद्वों के बिम्ब, गरीबी और श्रम की पैकेजिंग में पेश करते हुए काला, महज फिल्म न रहकर अंत में पूरा राजनीतिक बयान बन जाती है।


काला धारावी का तमिल ‘राउडी’ है। अब प्रतीक ध्यान से देखते जाइए। उसके साले का नाम ‘भैरव’ है और उसके पास एक देशी नस्ल का कुत्ता भी रहता है। ‘भैरव’ लगातार शराब पीता रहता है। ‘काला’ कलिकरन रक्षक देवता भी है, दलितों का नायक भी है और वह अक्सर खास मोड़ पर जब कुछ कहता है तो फ्रेम के बैकग्राउंड में गौतम बुद्ध विहार, धम्मचक्र और बुद्ध की प्रतिमा भी नजर आती है। द्रविड़ बिम्बों के तहत उसकी मेज पर किताब रखी है-असुर। मुंबई को साफ करने वाले, ‘बोर्न टू रूल’ (राज करने के लिए पैदा हुआ), काला के पारंपरिक शत्रु ‘स्वच्छाग्रही’ राजनेता को नाम दिया गया है-हरिदेव अभ्यंकर। यह विष्णु का नाम है। वह स्वयं रामभक्त है।


फिल्म के क्लाइमैक्स पर जब अभ्यंकर के लोगों द्वारा काला को घेरकर मारा जा रहा है, तब रावण के दस सिर गिरने और ‘सियावर रामचंद्र की जय’ की कहानी समानांतर चलाई जाती है। इस तरह हालांकि ‘राम’ वाले ‘रावण’ वाले को घेरकर मारना चाहते हैं, पर अंततः वह फिर प्रकट होता है और वंचितों के राज्य की स्थापना करता है।


मिथकों का मिश्रण यहां तक ऐसे ही नहीं लाया जाता। काला की पूर्व प्रेमिका मुस्लिम है, जरीना। उससे शादी प्रायोजित दंगों की वजह से होते-होते रह जाती है। वर्ना धारावी में तो टॉयलेट की लाइन से लेकर दुकानों तक ही सही, मगर बगैर धर्म-मजहब की रुकावट के प्रेम संभव है। जरीना विदेश से वापस लौटी है, पहले अभ्यंकर की चाल का हिस्सा बनकर, फिर काला की मुहिम में शामिल। काला का बेटा है-लेनिन! एक बार जब लेनिन रोता है तो काला कहता है, ‘रोता है? बेकार तुझे एक क्रांतिकारी का नाम दिया।’ तो, मार्क्स भी है, क्रांति भी और लक्ष्य भी!


रजनीकांत की राजनीति के लिए सर्वाधिक प्रमुख है तमिल अस्मिता। इसलिए धारावी में बस्ती बनाने तथा उनकी सामूहिक लड़ाई ‘जय महाराष्ट्रा’ के विरुद्ध लड़ने का भाव तो भीतर उतारा जाता ही है, फिर काला सेठ की सालगिरह पर मुस्लिम गायकों की मंडली गाती है। हिंदी संस्करण में लेनिन की प्रेमी-साथी मराठीभाषी है। एक मस्जिद के संदर्भ पर एक पात्र बताता है, ‘वह जो तमिल मुस्लिमों ने बनवाई थी।’ नायकन की तरह तमिल डॉन की कहानी यहां नहीं है, क्योंकि पूरी फिल्म में पता ही नहीं चलता कि काला का प्राथमिक रोजगार क्या है। तस्करी या चाय की दुकान?


भैरव के वाहन कुत्ते को, हरि के ड्राइंग रूम में खड़े शेर से मिलाकर देखते हुए, आप पूरी फिल्म के कई संवादों पर गौर कर सकते हैं, ‘काला-काले नाम से ही घृणा आती है’, ‘सवाल पूछो तो क्या कत्ल कर देंगे? यह तो फासिज्म है।’

तमिलनाडु के राजनीतिक परिदृश्य के हिसाब से रजनी की सिनेमाई राजनीति दलित-तमिल अस्मिता के रक्षक होने में उचित ही है, लेकिन उसे आश्रय मिलता है अंबेडकर और बुद्ध में, दलित-मुस्लिम जोड़ में। सबसे दिलचस्प पात्र है एक पुलिस वाला, जो काला के पक्ष में है।


पाठकों को याद होगा कि जब मंुबई में आजाद मैदान तक की मुस्लिम रैली के दौरान दंगाई पुलिस को पीट रहे थे और बाद में मनसे के राज ठाकरे ने गिरगांव चौपाटी तक जवाबी ‘शांति जुलूस’ निकाला, तो एक पुलिस कॉन्स्टेबल ने मंच पर जाकर राज ठाकरे को सम्मान में फूल भेंट किया था। यहां उसी किस्म का कॉन्स्टेबल काला के समर्थन में है। मजेदार बात यह है कि यहां भाषण देता कॉन्स्टेबल अपना नाम बोलता है-शिवाजीराव गायकवाड़। फिर ‘जय भीम’ का नारा लगा देता है। तमिल अस्मिता के नायक बनने की फिराक में लगे रजनीकांत का मूल नाम भी शिवाजीराव गायकवाड़ ही है, वह खुद तमिल नहीं, मराठा हैं। वह तमिलनाडु के प्रांतीय हिसाब से जन्मना बाहरी आदमी हैं।


इस तरह प्रांतीय अस्मिताओं, जातीय अस्मिताओं, मिथकों और सिनेमाई बिम्बों की ऐसी बुनावट सामने आती है, जो सत्ता के समकालीन विमर्श के अनुकूल बैठती है। नीला रंग अंत में खूब तबीयत से फेंका जाता है, जिसमें बाकी रंग मिल जाते हैं। मेज पर ‘असुर’, पार्श्व में ‘रावण’, साला ‘भैरव’, बेटा ‘लेनिन’, प्रेमिका ‘जरीना’, प्रशंसक ‘जय भीम’ और दुश्मन ‘हरि अभ्यंकर’! धारावी की गरीबी का यह सर्वजनहिताय उत्तर है।


मगर क्या काला के राजनीतिक बयान से वास्तविक रजनीकांत के राजनीतिक प्रस्थान का द्वैध संतुलित हो जाता है? एक रजनी-आलोचक ने लिखा है, जब हाल में तूतिकोरिन में प्रदर्शनकारियों पर गोली चली तो रजनीकांत ने उनके खिलाफ कहा था, अराजक तत्वों की वजह से ऐसा हुआ। यह तो गरीबों का साथ देना नहीं हुआ। फिर वह नरेंद्र मोदी की भाजपा के साथ भी दिखाई देते हैं और बहुजन राजनीति भी करना चाहते हैं। काला ऐसा कैसे हो सकता है?


तो क्या रजनीकांत राजनीतिक दृष्टि से कन्फ्यूज हैं? इसका उत्तर तो तमिलनाडु ही दे सकता है।



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