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मीडिया की मल्टीस्टोरी

चुनाव का वक्त है। एक धनबली से मुलाकात हुई। उनकी जबर्दस्त इच्छा हो रही थी कि मीडिया के धंधे में उतर जाएं। उनका अनुभव कहता था कि चुनाव के वक्त मीडिया का धंधा उफान पर रहता है। जो ‘नो पेड न्यूज’ कहते हैं, उनका भी वास्तविक संकेत समझने वाले समझ जाते हैं- ‘नो पेड, नो न्यूज’।

वे चाहते थे कि प्रॉपर्टी बहुत बना ली, अब मीडिया की मल्टीस्टोरी खड़ी करनी चाहिए। वे निष्पक्ष और निर्भीक मीडिया के जनक बनना चाहते थे। उन्हें जनक बनने का जुनून था। मीडिया में उसे रोप देना चाहते थे। ऐसा मीडिया जो सबकी सांस अटका दे। ऐसा मीडिया

जो हर एक की तबियत हरी कर दे। ऐसा मीडिया जिसे जनता का मीडिया कहा जाए।

ऐसी मीडिया मल्टीस्टोरी, जिसके हर फ्लोर पर निगरानी कैमरे और हर लिफ्ट में शांति युक्त सुरक्षा हो। जिसके हर फ्लैट में सच रहता हो। जिसके लॉन में जनपक्षधरता की बेटियां झूला झूलें। जिसकी पार्किंग में वे गाड़ियां खड़ी हों, जो ईमान के हॉर्न और आत्मा के रिमोट सेफ्टी लॉक के बिना हिलती न हों। ऐसा मेंटिनेंस कि लोग कहें, सरकार को यही मॉडल अपनाना चाहिए। पानी, बिजली, जनरेटर, छाया, प्रकाश, ध्वनि, समय, शक्ति, स्वाद, शांति, सत्य, अहिंसा, मानसून, नाव, कौए, कोयल, श्वान, श्वेत, श्याम, पीत, हरित- सबका धाम!

मैंने उनसे पूछा, ‘आपने जो पिछली मल्टीस्टोरी के फ्लैट चार-चार करोड़ में बेचे थे, क्या उसकी बचत से यह नई मल्टीस्टोरी खड़ी करेंगे?’

उन्होंने कहा, ‘मैं बचत पर आधारित निवेश नहीं करता। मैं संसाधन के स्रोत रचने में यकीन करता हूं। पिछली मल्टीस्टोरी का ही किस्सा लीजिए। मैंने वहां के आस-पास की झुग्गियां हटवाने में ही काफी खर्च कर दिया।’ ‘पर यह तो बेदखल करने का पाप हुआ।’

‘नहीं यहीं मेरा पुण्य उदित हुआ। मैंने एक अखबार से बात करके पहले एक अभियान चलाया कि ये झुग्गीवाले कितनी खराब हालत में रहते हैं और शहर का चेहरा भी बदनुमा होता है। उन्हें सरकारी खाते से बीस किलोमीटर बाहर बाकायदा जगह मिली और तब वहां मल्टीस्टोरी खड़ी की। मैं तो झुग्गियों को प्रणाम करता हूं। वे न होतीं तो उसके पीछे की जमीन पर मेरी नजर न जाती। अगर वे वहीं रहतीं तो मल्टी का एक गेट भी न बिकता। तुम भी सुखी, हम भी सुखी। पैसा सरकार का, पुनर्वास गरीबों का और मल्टी अपनी। यह शुभ-लाभ है। इसमें कहीं पाप नहीं है। और मैं अखबार का इसलिए कायल हो गया कि उसने गरीबों की सेवा की और मेरी मल्टी के विज्ञापन भी पाए। तबसे मैं सीधे मीडिया में उतरना चाहता हूं। देश को आगे बढ़ाना चाहता हूं।’

देश को आगे बढ़ाने का काम अभी राहुल गांधी ने हाथों में ले रखा है। कुछ लोगों का मानना है कि लालकृष्ण अडवाणी भी देश को आगे बढ़ाना चाहते हैं। लेकिन, उनकी बस एक ही इच्छा है कि नरेंद्र मोदी सीटें जीतकर लाएं और उनके चरणों में डाल दें। मोदी को लगता है कि जब जीतने का सारा पसीना खुद को निकालना है तो खुद के चरण भले।

मैंने धनबली के चरणों की ओर देखा। ‘मीडिया में साख बड़ी जरूरी होती है।’ मैंने इशारा किया। वे चरणों को मेज पर रखते हुए बोले, ‘लोग तिहाड़ जा रहे हैं और साख बढ़ाकर भी आ रहे हें। मैं भी इस चुनाव में दो-चार को साख बढ़ाने का मौका दे सकता हूं। दूसरों की बढ़ाऊंगा तो अपनी तो होगी ही।’ क्या आपको एडीटर भी बनना है? मैंने उन्हें चरण हिलाते देखा। ‘वो तो कहीं से भी ले आएंगे। यह कोई समस्या नहीं है। मैं मालिक-सेवक ही रहना चाहता हूं। मैं आदर्श आदमी हूं एडीटर की संस्था में हस्तक्षेप नहीं करता।’

‘क्या आपको एडीटर मिल जाएंगे? पिछले चिट-फंड अनुभवों से तो आपकी कुंडली काफी जटिल दिखाई देती है।’ ‘अजीब आदमी हो। जब देश आगे बढ़ाना होता है, तो एक खोजो हजार सेनानी मिलते हैं। हर शुद्ध सेनानी सुरक्षित पार्टनर होना चाहता है। पार्टनर के लिए मारा-मारी करते हुए जब वह असफल हो जाता है तो हाउस बदल लेता है। मैं तो जैसा कि कह चुका हूं, मेरी मीडिया की मल्टीस्टोरी होगी। जब मल्टी होगी तो कई फ्लोर होंगे। मैं सोलह के आस-पास एडीटर पार्टनर तो प्रति फ्लोर एक के हिसाब से खपा लूंगा। देश को आगे बढ़ाना हो तो कंजूसी कैसी?’ ‘मीडिया एक पवित्र चीज है।’ ‘मीडिया की मल्टीस्टोरी मल्टी पवित्र चीज है।’ ‘लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है।’ ‘खंबे के लिए सीमेंट तो इसी बाजार से आएगा और नक्शा भी वही डिपार्टमेंट पास करेगा’। ‘आप ईमान के धंधे में उतर रहे हैं’ ‘ब्रोकर- डीलर तो यहां भी लगेंगे।’

उन्होंने चरण मेज से नीचे रखे और जेब से एक कागज निकाला। कागज में गणेश शंकर विद्यार्थी, पराड़कर और विवेकानंद की सूक्तियां लिखी हुई थीं। साथ में नए मल्टीस्टोरी प्रोजेक्ट का ब्रोशर भी था। प्रोजेक्ट में बैंक लोन प्रावधान बड़े-बड़े अक्षरों में दिखाई देता था। वे पूछ रहे हैं, जब सब लोग उद्योगपतियों को शेयर बेचकर चौथे खंबे की पवित्र गाय हो सकते हैं तो उन्हें लेकर इतनी तीन-पांच क्यों हो रही है?

वे मोदी से पूछना चाहते हैं। मसूद से पूछना चाहते हैं। राहुल से पूछना चाहते हैं। नीतीश और ममता से भी पूछना चाहते हैं कि उनके वेंचर में कितना लगाया जाएगा। केजरीवाल को वे इंटरवल का पॉपकॉर्न कहना चाहते हैं। आडवाणी को बाम की शीशियां बेचना चाहते हैं। अशोक चव्हाण को आदर्श सोसायटी इलाके में डिनर कराना चाहते हैं।

उम्मीद है वे जल्द ही इलेक्शन में मीडिया के निर्मल बाबा हो जाएंगे। वैसे निर्मल बाबा खुद मीडिया हाऊस डाल दें तो? उनका कहना है, ‘तब वे जर्नलिस्टों की सप्लाई वाली फर्म खोल देंगे।’ आखिर, ईमान का धंधा जो ठहरा!

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