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विकल्प की लेबोरेटरी

वे हंस रहे थे। हंस-हंसकर तर्क फेंक रहे थे। बीच में गंभीर होकर लोहिया से लेकर अन्ना हजारे तक पर मुहावरे गढ़ने बैठ जाते थे। उन्हें गांधी, नेहरू, अबुल कलाम, भगत सिंह, अशफाक उल्लाह सबका मिश्रण करके विकल्प देने की लेबोरेटरी खोलने का अनुभव था। वे कभी इतना दबाकर, उठाते हुए, गिराकर सम पर लाते हुए इस तरह बोलते थे कि आपको भरोसा हो जाए कि बुडापेस्ट, बुडोपस्ट नहीं है, बदायूं है। और बदायूं, उत्तर प्रदेश में नहीं, हंगरी में है। वे आंतरिक प्रजातंत्र, नायक की उपयोगिता और व्यक्तिवाद के आम चूसकर उनकी गुठली और स्वाद पर विश्लेषण के कारीगर थे।

आज वे ‘आप’ पर भिड़े थे। उनका कहना था, इनसे बड़ी आशाएं थीं। लो जी, मिट्टी में मिलाकर रख दीं। अब देश किसी विकल्प पर यकीन करने से पहले दस बार सोचेगा।

‘आपका तो देश से भी बड़ा नुकसान हो गया?’ मैंने पूछा। ‘नुकसान का आकलन मुश्किल है। मैंने तो जेपी के वक्त भी कहा था कि जनता पार्टी का प्रयोग चलने वाला नहीं है। जेपी ने मेरी नहीं मानी। परिणाम सबने देखा।’ ‘आपकी जेपी से बात हुई थी?’ मुझे थोड़ा शक हुआ।

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‘मेरी हर उस आदमी से बात होती रही है, जो सन् 47 के बाद से देश में विकास के मामले में हाथ डालने की सोच रखता है।’ उन्होंने शब्द चबाते हुए कहा। ‘विकल्प वाले जब आपसे इतना पूछकर काम करते हैं, तब आप नए विकल्प की रचना के लिए खुद क्यों नहीं खड़े होते?’

‘मैं पहले एक जगह फेलो हुआ, फिर दूसरी जगह फेलो हुआ, फिर तीसरी जगह फेलो हुआ, फिर विदेश चला गया। फिर लौटा और फिर कहीं सीनियर फेलो हो गया। यह फेलो वाली जो व्यस्तता है, मुझे विकल्प के लिए फुलटाइम जाने से रोकती है। वर्ना आप जानते हैं, मैंने विनोबा और किशन पटनायक को भी लंबी पुस्तिकाएं लिखकर उनके प्रयोगों पर आगाह किया था।’

‘हालांकि मेरी जानकारी में आपकी वे चेतावनियां नहीं हैं, लेकिन मान लें तो सहज ही विचार आता है कि आप ‘फेलो-फेलो’ ही में न लगे रहते तो देश को नया बनाने का हर मूवमेंट फेल होने से बच जाता। अब होता यह है कि मूवमेंट फेल होता दिखता है और आपके फैलो में एक और ‘सीनियर’ जुड़ जाता है। पिटता हुआ देश आखिर आपकी मदद कब ले?’

‘मैं जनता का आदमी हूं। मैं जनता की बात करता हूं। मूवमेंट पिटेगा तो मैं बोलूंगा।’ ‘आप मूवमेंट के पिटने की प्रतीक्षा तक क्यों रुके रहते हैं? खुद ही एक मूवमेंट क्यों नहीं शुरू कर देते?’ ‘मैं समझता हूं कि चले हुए मूवमेंट की मदद करना ज्यादा बड़ा काम है। और, पिटे हुए मूवमेंट की और पिटाई करना उससे भी बड़ा काम है।’ ‘क्या इसी सिद्धांत पर आजकल आप अरविंद केजरीवाल पर भिड़े हैं?’

‘मैंने गाजियाबाद के एक पार्क में सुबह घूमते हुए केजरीवाल को बहुत पहले ही बता दिया था कि एनजीओ चलाओ, राष्ट्रीय सलाहकार कमेटी के मेंबर हो जाओ और नई-नई रिपोर्टें लाकर क्रांति करो। यह जंतर मंतर-रामलीला का मामला बचाकर रखो। बच्चों को सोते वक्त सुनाने के काम आएगा।’

‘पर जब केजरीवाल की आंधी चली थी, तब तो उस आंधी में गिरे हुए आम आप भी बटोर रहे थे। सुनते हैं, कोई टन भर इकट्ठे हुए जो आपने समाजवादी पैकेजिंग करके सप्लाई कर डाले।’

‘आंधी और आम, दो भिन्न चीजें हैं। मैं आम न बटोरता, तो वे आम समाजवादी कैसे हो पाते? आंधी चलती है, पर उसकी कोई जेब नहीं होती, उसके काफिले में कोई गिरा माल उठाने वाली मशीन नहीं होती। वह सिर्फ चल पड़ती है। मेरे जैसे लोग उसके परिणामों को अर्थ दे देते हैं।’

वे इसके बाद और जोरों से हंसे। उनके मोबाइल पर कोई नया लतीफा आया था। विकल्प की लेबोरेटरी आजकल वे मोबाइल पर व्हाट्स ऐप के जरिए ही चला रहे हैं।

वे धड़ाधड़ उस लतीफे को फॉरवर्ड कर रहे हैं। बस इतना पता चला है कि लतीफा समाजवादी है, भेजा भाजपा के किसी भक्त ने है और कांग्रेसी ने अपना आईडी इस्तेमाल किया है।

*और अंत में ….. ‘लीडर वह है, जो सबसे ऊंचे वृक्ष पर चढ़ता है, चारों तरफ निगाह रखता है और जोर से चिल्लाकर बताता है – हम गलत जंगल में चले आए हैं।’ – स्टीफन आर. कोवे

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