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साधु इतना लूटिए जामे जनम सुहाय

केदारनाथ की त्रासदी का सर्वोत्तम पक्ष यह है कि कुछ साधुओं-पंडों आदि ने माया का अर्थ दोबारा समझा दिया। मराठवाड़ा में एक बार भूकंप आया था तो मरे हुए लोगों की जेब से रुपए, हाथ से घड़ियां आदि लूटने में पुलिस वाले पर्याप्त सक्रिय मिले थे।

kedarnath

चूंकि केदारनाथ ऐसी जगह है जहां यूं जाना भी मुसीबत का काम है इसलिए पुलिस वहां जोखिम लेने नहीं पहुंची। इस धर्म को कुछ साधु-पंडों ने प्रेमपूर्वक निभाया।

उन्होंने लोगों के जेवर लूटे, स्टेपल की हुई बैंक से निकली ताजा गड्डियां लूटीं और एक बाबा ने अपना नाम गोल्डन बाबा बताते हुए फरमाया कि वह चाहे तो पीडि़तों को सोना ही सोना दान कर सकता है।

बाबाओं की लूट का और गोल्डन बाबा के दान का एक ही अर्थ है – अंतत: इतना लूटना कि लुटने वाला लुटने लायक भी न बचे।

इस परम मोक्षकारी विचार के साथ एक बाबा एक मरे हुए श्रद्धालु की जेब टटोल रहा था।

‘क्या कुछ मिला कि नहीं?’ दूसरे ने पूछा। ‘नहीं कंगला दिखता है। कैसे-कैसे लोग भगवान शिव के दरबार में चले आते हैं। मरे तो भी फूटी कौड़ी न निकले। अब तीर्थ यात्राओं में बॉन्ड भरवाना चाहिए। एक इंटरव्यू होना चाहिए कि तुम्हारी माली हालत क्या है। नकदी कितनी रखोगे और जेवर कितने? जिनके पास यह नहीं है उन्हें गंगा को मैली करने का अधिकार ही क्या है?’

‘लोग गंगा में तरने आते हैं, इनका तो केदार घाटी में ही मोक्ष हो गया। मोक्ष के बाद इस लोक की माया का ये क्या करेंगे? यह हम ले लें तो लोगों को तारने में काम आएगी।’

अभी दोनों की वार्ता पूरी नहीं हुई थी कि बिस्कुट के पूड़ों से लदे हुए एक सज्जन बीच में कूदे।

‘क्या बाबाजी, सोने के बिस्कुट ढूंढ़ रहे हैं?’ ‘तुम्हें मिले तो बताना। दस सड़ी हुई लाशें खोजीं तब जाकर कुछ छुट्टे मिले हैं। इतना खराब समय तो कभी नहीं देखा।’ ‘बाबाजी लूटने-खसोटने-जेब कतरने में उतना प्रॉफिट नहीं है। मरे हुओं को लूटने में इतनी रिस्क है कि दस लाशें खोजो तो एक में कुछ हाथ आता है। मैं जिंदा लोगों की सेवा का प्रॉफिट पा रहा हूं।’

‘क्या अभी भी ऐसी कोई संभावना बची है?’ पहले बाबा ने पूछा।

‘क्यों नहीं? पांच रुपए का पैकेट भूखे केदार-भक्त को दो सौ रुपए में दो तो वह दुआएं भी देता है और एक सौ पच्यानवे रुपए का मुनाफा भी।’

‘यह तो लूट है।’ बाबाजी ने अपनी धार्मिक किताब के पन्ने मन ही मन फड़फड़ाए।

‘क्यों? मैंने उसकी भूख मिटाई। उस वक्त उसकी भूख लाखों की थी क्योंकि जीवन करोड़ों का था। मैंने सिर्फ एक सौ पच्यानवे रुपए लेकर उसके करोड़ों बचाए। क्या करोड़ों में से इतना-सा लेना अनैतिक है?’ बाबाजी सोच में पड़ गए। पांच रुपए का बिस्किट दो सौ रुपए में देना धर्मोचित है और मरे हुए की गर्दन से चेन खींच लेना अनुचित है?

वे कुछ क्षण मौन रहे कि दूसरे बाबा ने संबल दे दिया। ‘यह जीतों को लूट रहा है। हम उन मुर्दों की माया अपने हाथों में ले रहे हैं जो अब उनके काम की ही नहीं है। इसलिए धर्म हमारी तरफ है, इस बिस्कुट बेचू की तरफ नहीं।’

पहला बाबा अभी भी संशय में था और बिस्कुट पर मुनाफे की नैतिकता का विश्लेषण करके इस विचार में लीन था कि यदि किसी मुर्दे की जेब से कुछ हजार निकल आएं तो क्या हो?

‘तुम्हारे पास कितने पैकेट हैं?’ बाबा ने आंखों में चमक लाते हुए बिस्कुट वाले से पूछा। ‘क्यों? भूख लगी है। बाबाजी हो! चाहिए तो फ्री में एक-दो दे दूंगा। बाबाओं की भूख मिटेगी तो मेरे पुण्य का खाता भी मजबूत होगा।

बाबाजी ने मुस्कुरा कर कहा, ‘प्यारे, तुम तो सारे बिस्कुट दे दो।’ ‘फिर मैं क्या खाऊंगा-कमाऊंगा?’ ‘तुम्हें एक सौ पच्यानवे प्रति पैकेट मुनाफा हो रहा है, मैं दो सौ दूंगा। सारे दे दो।’ बिस्कुट वाला सन्न रह गया।

बाबाजी ने हाल में एक लाश से निकाले नोटों की गड्डी बिना गिने उसके हाथ में टिकाई और सारे बिस्कुट ले लिए। अब बाबाजी ढाई सौ का एक पैकेट बिस्कुट बेच रहे हैं। दो सौ रुपए का जो निवेश उन्होंने किया है, वह किसी लाश की जेब से ही किया है।

उन्होंने जिसकी जेब से निकाला उसे भी जबर्दस्त पुण्य मिलेगा क्योंकि शिव भूमि में लाश पर बेकार पड़ी माया का बाबाजी के हाथों लोगों की भूख मिटाने में उपयोग हो इससे ऊंचा सत्कर्म और क्या हो सकता है?

अब दृश्य यह है कि बाबाजी लाशों की जेब और जीवितों के पेट के बीच अपना पुण्य कमा रहे हैं। बिस्कुट वाला मैदान में किसी ढाबे की नौकरी करने चला गया है।

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