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स्वयंसेवक की बाजी

इच्छाशक्ति और अनिर्णय के बीच बहुत ज्यादा दूरी नहीं होती। राजनीति में तो कई बार यह बात दिलचस्प शक्ल ले लेती है। कुछ चीजें इच्छापूर्वक अनिर्णीत छोड़ दी जाती हैं या अनिच्छापूर्वक निर्णीत हो जाती हैं। इसमें बहुत-सी आसानियों, समीकरणों और दुश्वारियों का हिसाब रखा जाता है। यदि अनिर्णय के माहिर केंद्र में हों, तो एक उपयोगी धुंध बना ली जाती है। 


हो जाए या न हो, दोस्तों और दुश्मनों - दोनों के बीच सहज, धुंधला संबंध जीवित रहता है और सारे जोखिम टाल दिए जाते हैं। जनप्रिय बने रहने के, कई नुस्खों में से एक यह भी है। एक दूसरा रास्ता जोखिम लेने का है। इसके लिए आर या पार का ईमानदार साहस एकत्र करना होता है और भविष्य के खतरों का भय भी लिख लेना होता है।


यह पहली बार है, जब बहुत से यथास्थितिवादी सदमे में आ गए हैं। क्योंकि खुद नरेंद्र मोदी के पार्टी के सदस्य जो अपनी आंखों में 370 जाने का सपना देखते-देखते बूढ़े हो गए, कल्पना नहीं कर पा रहे थे कि उनका एक 'स्वयंसेवक' इस आसानी से किसी दिन ऐसी बाजी खेल जाएगा। कश्मीर की गांठ क्या है, यह कौन नहीं जानता। लेकिन, इसका सीधा सामना नहीं किया जाता। वे तथ्य जो बार-बार दोहराए और विवाद के केंद्र में लाए जाते हैं, अंततः वहीं जाकर और बड़े सवाल के तौर पर खड़े हो जाते हैं। 

पाकिस्तान के साथ एक साझा अतीत और सांप्रदायिकता का तड़का एक स्थायी रेसिपी है। आतंकवाद को कमर्शियल एंटरप्राइज बना देने वाले कई तत्व इसे अपने-अपने दृष्टिकोण से पेश करते रहे हैं। लद्दाख के अपने दुख थे और वह सालों से अलग प्रदेश के रूप में दर्जा दिए जाने की मांग करता रहा है। जम्मू की स्थिति अपने आप में स्पष्ट है। वह घाटी ही है, जो पूरी 'कश्मीरियत' के नाम पर की जा रही सियासत के शीर्ष पर खड़ी होती रही है। 

हिंसा के चलते कश्मीरी पंडितों, सियालकोट से विभाजन के बाद भाग कर आए हिंदुओं या पंजाब से ले जाए गए मैला ढोने वालों की बात हाशिए पर ही रहती आई है। कश्मीर की बेटियां बाहर शादी करते ही अपने हक खो देती हैं। जबर्दस्त केंद्रीय सहायता की राशि झील के न जाने किस किनारे में डूब जाती है। बेरोजगारी, उद्यमहीनता और गरीबी बढ़ती जाती है। फिर भी 'कश्मीरियत' के नारे, पत्थरबाज और आंतकियों के खौफ से ही कश्मीर की तस्वीर बनती है। 


यह त्रासद है और पीड़ा के 'चुने हुए उपयोगी मॉडल' की भयावह तस्वीर भी पेश करता है। यही वजह है कि घाटी के नेताओं की पहली प्रतिक्रिया थी - 'आग लग जाएगी।' मगर श्यामाप्रसाद मुखर्जी की जनसंघ के सपनों की आंच को मोदी की भाजपा ने संकल्प की अग्नि की तरह खड़ा कर लिया।


जब राज्यसभा में बिल पास हुआ, तो हिंसा और विकास का मुद्दा छोड़ 'राज्य के अधिकारों' पर बहस मोड़ने की कोशिश हुई। अन्नाद्रमुक को कहा गया कि आज जम्मू-कश्मीर का नंबर आया, कल तमिलनाडु आ जाएगा। कहना न होगा कि दोनों की तुलना ही, ऐतिहासिकता से आंखें फेरने जैसा है। मगर अभी बात राज्य के पुनर्गठन की, जिससे दो केंद्रशासित प्रदेश बन जाएंगे। 


उस पर, कहा गया है कि स्थिति सामान्य होने पर जम्मू-कश्मीर को पूर्ण राज्य भी बनाया जा सकता है। यह बाद की बात है। लेकिन सबको अंदाजा है कि अलगाववादियों की बेचैनी, अराजकता पैदा करने से नहीं चूकेगी। ध्यान से देखेंगे तो घाटी के नेताओं और पाकिस्तान के बयानों की भाषा एक हो सकती है। 

संविधान विशेषज्ञ कहते हैं कि विधेयक पूरी तरह संविधान से ही निकालकर सांविधानिक मार्ग पर खड़ा किया गया है इसलिए राजनीतिक पहलू को छोड़कर कोई अड़चन नहीं है। यदि सही राह चले, तो जम्मू-कश्मीर की रंगत पूरी तरह बदल जाएगी। बहरहाल, कूटनीति, राजनीति और संविधान के लिहाज से जो भी व्याख्याएं हैं, वे तमाम पक्ष-विपक्ष के विश्लेषक करते रहेंगे। एक बात जो फिर से स्थापित हुई है, वह है मोदी सरकार की सधी हुई कार्यशैली। 


राज्यसभा में जिस तरह से यह प्रस्ताव पेश किया गया, उसकी जरा खबर किसी को कानोंकान नहीं हुई। आज तक वे तमाम बड़े फैसले जो परंपरा को तोड़ सकते थे, हैरत में डालते हुए अचानक सामने आए हैं। इस बार राजनीतिक प्रबंधन का स्तर यह था कि राज्यसभा में 60 के खिलाफ 124 से यह प्रस्ताव ऐसे पास हुआ जैसे 370 को हटना ही था। जैसा कि स्वाभाविक ही था व्हाट्सएप भक्तों का समुदाय सावन सोमवार गिनता हुआ चंद्रयान से तीन तलाक पर होता हुआ 370 पर जा टिका। सिर्फ दंभ, अधिनायकवाद, निरंकुशता या भय की तकनीक से यह संभव नहीं होता। इसके लिए सुनियोजित रणनीति, गोपनीयता, पूर्व तैयारी और भविष्य में उत्तर देने का संचित आत्मविश्वास आवश्यक होता है।


आम जनता के साथ संवाद का स्तर बनाए रखना और दूसरी तरफ विरोधियों के राजनीतिक प्रतिरोध को निरस्त करना, किसी भी लोकतंत्र में अपने आप में बेहद मुश्किल काम है। अन्यथा महत्वपूर्ण समझा जाने वाला फैसला किसी भी अंत का ऐलान हो सकता है।


उम्मीद की जानी चाहिए कि जम्मू-कश्मीर को लेकर की जा रही तमाम आशंकाएं निरस्त होंगी और जिस तरह मुख्य धारा में जम्मू-कश्मीर को लाने की बात हो रही है, वह अपनी परिणति पर पहुंचेगी। यह क्षण ऐतिहासिक है। अभी सुबह साढ़े दस बजे तक असंभव समझे जाने वाले इस क्षण को, संभव कर दिया गया है। आप खिलाफ हों या साथ, इस मुकाम को दर्ज किए बिना कौन रह सकेगा? परम मोदी विरोधी भी नहीं।



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